Friday, 16 December 2016

कृष्णभावनामृत : दया की पूर्णता

अब प्रहलाद महाराज अपना निष्कर्ष सुनाते है, "हे मित्रों! चूँकि भगवान सर्वत्र उपस्थित हैं और चूँकि हम भगवान के भिन्नअंश है ,इसलिए हमारा कर्तव्य है कि हम समस्त जीवों पर दयालु हों।"जब कोई व्यक्ति निम्नतर पद पर होता है तो उसकी सहायता करना हमारा कर्तव्य है। उदाहरणार्थ , चूँकि शिशु असहाय होता है अतएव वह अपने मातापिता की दया पे आश्रित होता है, वह कहता है, "माँ! मुझे यह वस्तु चाहिए" और माता कहती है,"हां बेटे! दे रही हूँ।" हमें हर जीव पर दयालु होना चाहिए और उन पर दया दर्शानी चाहिए।
हम किस तरह सभी पर अपनी दया दिखलाये? संसार मे करोड़ो दीन-दुखियारे हैं, तो हम सब पर किस प्रकार दया का प्रदर्शन करें? क्या हम संसार के सभी अभावग्रस्त लोगो को वस्त्र और भोजन दे सकते हैं? ऐसा संभव नहीं है। तो हर जीव पर हम किस प्रकार दयालु हों? उन्हें कृष्णभावनामृत प्रदान कर के। प्रह्लाद महाराज इसी विधि से अपने सहपाठियो पर वास्तविक दया का प्रदर्शन कर रहे हैं। वे सब के सब मुर्ख थे,कृष्णभावनामृत से विहीन । इसलिए प्रह्लाद महाराज उन्हें कृष्णभावनाभवित होने का मार्ग दिखला रहे थे। यही सर्वोच्च दया हैं, यदि आप समस्त जीवों पर तनिक भी दया करना चाहते हैं, तो उन्हें कृष्णभवनामृत का प्रकाश दीजिये जैसा प्रह्लाद महाराज ने किया।अन्यथा भौतिक दृस्टि से दया दिखा पाना आपकी शक्ति से परे है।
प्रह्लाद महाराज कहते हैं, मित्रों! अपना यह आसुरी जीवन छोड़ दो। इस मूढ़ता को त्याग दो । यह धारणा की ईश्वर नहीं है, प्रह्लाद महाराज अपने मित्रों को इस आसुरी विचार को त्यागने को कहते है। चूँकि प्रह्लाद महाराज के मित्रगण असुर परिवारों में जन्मे थे और आसुरी शिक्षकों से शिक्षा पा रहे थे इसलिए वे सोचते थे, "ईश्वर कौन है? ईश्वर नहीं है।" हम भगवतगीता में पाते हैं कि इस प्रवृत्ति के लोग दुष्ट कहलाते हैं क्योंकि वे सदैव दुष्टता पर तुले रहते है। भले ही वे शिक्षित क्यों न हो किन्तु उनकी योजना ठगने की रहती है। हमें इसका व्यावहारिक अनुभव है। ये लोग उच्च शिक्षा से योग्य होते है और अनेक योग्यताओ से युक्त होते है। ये सुन्दर वेशभूषा भी धारण करते हैं किंतु इनकी मनोवृति निम्न होती है। वे सोचते हैं, "इस व्यक्ति के पास कुछ धन है अतः षड़यंत्र करके इसे ठग लिया जाए।" वे निरे दुष्ट हैं।
वे किस लिए ठगते है ? मात्र इंद्रियतृप्ति के लिए, ठीक उसी तरह जिस तरह कि जीवन का लक्ष्य न जानने वाला एक गधा । धोभी गधे को पालता है और उसकी पीठ पर भरी बोझ लादता है। इसी तरह यह गधा इस गठरी को दिनभर इसलिए लादे रखता है कि उसे थोड़ी घास मिल जायेगी। इसी तरह के भौतिकवादी लोग केवल तुच्छ इंद्रियतृप्ति के लिए कठोर श्रम करते है। इसलिए उनकी उपमा गधो से दी जाती है। वे सदैव किसी न किसी दुष्टता की योजना बनाये रहते हैं। वे मानव जाति में सबसे निम्न होते हैं क्योंकि उन्हें ईश्वर मैं विश्वाश नहीं है। क्यों? क्योंकि उनका ज्ञान भौतिक शक्ति (माया) द्वारा हर लिया गया है। चूँकि वे ईश्वर के अस्तित्व को नकारते है इसलिए मोह उन्हें प्रेरित करता है "सचमुच ही ईश्वर नहीं है। कठिन श्रम करो और पाप करो जिससे नरक जा सको।"
प्रह्लाद महाराज अपने आसुरी मित्रो से अनुरोध करते हैं कि वे यह विचार त्याग दे कि भगवान नहीं हैं। यदि हम इस व्यर्थ के विचार को त्याग दें तो हमारी अनुभूति से परे रहने वाले परमेश्वर प्रसन्न हो जायेंगे और हम पर दया करेंगे।
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Monday, 24 October 2016

भगवान् की सर्वव्यापकता की अनुभूति (चतुर्थ भाग/अंतिम भाग)

तृतीय भाग का शेष..
अपनी चेतना को कृष्णभावनामृत से युक्त करना हमारी विधि है और यह हमें पूर्णता प्रदान करेगी। ऐसा नही है कि उस चेतना में हमारा विलय हो जायेगा। एक तरह से हम लीन हो जाते हैं तथापि हम अपना व्यस्टित्व बनाये रखते हैं। निविर्शेषवादी दार्शनिक कहते हैं कि सिद्धि का अर्थ है ब्रह्मा में लीन होना और अपने व्याष्टित्व को खो देना। हम कहते हैं कि सिद्धि अवस्था में हम ब्रह्म में लीन हो जाते हैं लेकिन हम अपने व्यष्टित्व को बनाये रखते हैं।ऐसा किस तरह हो सकता है? एक हवाई जहाज हवाई अड्डे से उड़ान भरने के बाद उप्पर उठ जाता है और जब वह बहुत उप्पर चला जाता है तो हम उसे देख नही पाते , तब हमे केवल आकाश दिखता है। किन्तु यह जहाज़ खोता नहीं,तब भी रहता है। इसी तरह से एक विशाल हरे वृक्ष पर बैठता हुआ हरा पक्षी। हम पक्षी तथा वृक्ष में अंतर नही कर पाते किन्तु दोनो का अस्तित्व बना रहता है। इसी तरह से परम चेतना कृष्ण है और जब हम अपनी चेतना को ब्रह्म से जोड़ते हैं तो हम पूर्ण बनते है किन्तु हमारा व्यष्टित्व बना रहता है। एक बाह्रा व्यक्ति यह सोच सकता है कि ईश्वर तथा उनके शुद्ध भक्त में कोई अंतर नही है किन्तु यह अल्प ज्ञान के कारण होता है। हर व्यक्ति,हर प्राणी अपने व्यष्टित्व को शाश्वत रूप से बनाये रखता है भले ही वह ब्रह्म से युक्त क्यों न हो गया हो ।
प्रह्लाद महाराज कहते हैं कि हम चेतना को - चाहे वह परम चेतना हो या व्यष्टि चेतना-देख नहीं सकते किन्तु वह विद्यमान रहती है। तो हम कैसे समझे कि चेतना विद्यमान है?हम परम चेतना तथा अपनी निजी चेतना को आनंदमयता की अनुभूति द्वारा सरलता से समझ सकते हैं। चूंकि हममे चेतना हैं इसलिए हम आनंद का अनुभव कर सकते है। चेतना के बिना आनंद की अनुभूति नहीं हो सकती। चेतना के अनुसार ही हम अपनी इन्द्रियों का इच्छानुसार प्रयोग करके जीवन का आनंद उठा सकते हैं। किंतु जैसे ही शरीर से चेतना निकल जाती है,हम इन्द्रियों का भोग नही कर पाते |
हमारी चेतना का अस्तित्व इसलिए है क्योंकि हम चेतना के भिन्नाश हैं। उदाहरणार्थ ,एक चिंगारी ,अग्नि का एक लघु रूप है तथापि वह अग्नि है। अटलांटिक सागर की एक जल की बूंद में जल का वही गुण रहता है जो समस्त सागरों के जल में है अर्थात वह भी खारी है। इसी तरह से भगवान में ह्लादिनी शक्ति होने के कारण हम भी आनंद का भोग कर सकते हैं। चूंकि भगवान् परमेश्वर या परम नियामक हैं अतः हम भी ईश्वर या नियामक हैं। उदाहरणार्थ ,जब मुझे खांसी आती है हो में पानी पी सकता हूँ। यह मेरी नियामक शक्ति है।हममे से प्रत्येक में यह नियामक शक्ति अपनी अपनी क्षमता के अनुसार पायी जाती है। लेकिन हम परम नियामक नही है। परम नियामक तो कृष्ण हैं।
चूंकि कृष्ण परम नियामक हैं अतएव वे अपनी विभिन्न शक्तियों के द्वारा विश्व के सभी कार्यो का नियमन कर सकते हैं। मैं भी अनुभव करता हूँ कि कुछ हद तक में अपने शरीर के कार्यो का नियमन कर रहा हूँ किन्तु परम नियामक न होने से यदि इस शरीर में कोई दोष आ जाता है तो मुझे वैध के पास जाना पड़ता है। इसी तरह से अन्य शरीरों के उप्पर भी मेरा कोई नियंत्रण नही है। मैं इस हाथ को अपना हाथ कहता हूँ क्योंकि मैं इससे कार्य कर सकता हूँ और इच्छानुसार इसे हिला डुला सकता हूँ लेकिन मैं आपके हाथ का नियामक नही हूँ। वह तो आपके वश मैं है आप चाहे तो अपना हाथ हिला-डुला सकते हैं। इसलिए मैं आपके शरीर का नियामक नही हूँ,न ही आप मेरे शरीर के नियामक हैं किन्तु परमात्मा आपके शरीर के,मेरे शरीर के तथा हर एक के शरीर के नियामक हैं।
भगवतगीता में भगवान् कहते हैं कि तुम अर्थात आत्मा अपने शरीर में उपस्थित हो और तुम्हारा शरीर कर्मो का क्षेत्र है। इसलिए आप जो भी कर्म करते है,वह आपके शरीर के क्षेत्र द्वारा परिसीमित है। एक भूभाग में बंधा पशु उस क्षेत्र में विचरण कर सकता है किन्तु वहाँ से बाहर नहीं जा सकता। इसी आह से आपका कर्म तथा मेरा कर्म हमारे शरीर की सीमाओ के अंदर बंधा हैं। किन्तु क्रिअहन कहते है,"में प्रत्येक क्षेत्र में उपस्थित रहता हूँ।"इस तरह परमात्मा होने के कारण कृष्ण जानते हैं कि मेरे शरीर मे , आपके शरीर मे तथा अन्य लाखों-करोड़ो शरीरो में क्या हो रहा है। इसलिए वे परम नियामक हैं। हमारी शक्ति सीमित है किन्तु उनकी शक्ति असीमित है।उनकी नियामक शक्ति से , उनकी परम इच्छा से , यह भौतिक सृष्टि संचालित है। इसकी पुष्टि भी भगवतगीता से होती है जहाँ कृष्ण यह कहते है,"सम्पूर्ण भौतिक प्रकृति मेरे अधीक्षण में कार्य करती है। तुम इस जगत में जितनी भी अद्भुत वस्तुए देख रहे हो,वे मेरे अधीक्षण-मेरे परम नियंत्रण-के कारण है"।
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Tuesday, 4 October 2016

भगवान् की सर्वव्यापकता की अनुभूति (तृतीय भाग)

द्वितीय भाग का शेष..
तत्पश्यात प्रह्लाद महाराज कहते हैं,"यद्यपि उन्हें देखा नही जा सकता तो भी उनकी अनुभूति की जा सकती है|जो बुद्धिमान है वह भगवान की सर्वत्र उपस्थिति की अनुभूति करता है" यह कैसे सम्भव है? दिन के समय कमरे के भीतर रहकर भी यह जाना जा सकता है कि दिन चढ़ गया है|चूँकि कमरे में प्रकाश आ रहा है इसलिए यह समझा जा सकता है कि आकाश में सूर्य चमक रहा है|इसी तरह जिन्होंने परम्परा से पूरा ज्ञान प्राप्त किया है वे जानते हैं कि हर वस्तु भगवान् की शक्ति का प्रसार है|इसलिए वे भगवान का सर्वत्र दर्शन करते हैं|
हम अपनी भौतिक इन्द्रियों से क्या अनुभव करते हैं? जो हमारी भौतिक आँख से दृष्टिगोचर होता है उसे हम देख सकते हैं-जैसे कि पृथ्वी,जल तथा अग्नि|किन्तु हम वायु को नहीं देख सकते ,यद्यपि हम स्पर्श द्वारा उसका अनुभव कर सकते हैं|ध्वनि के द्वारा हम समझ सकते हैं कि आकाश है और सोचने,अनुभव करने,इच्छा करने आदि के कारण हम समझ सकते हैं कि बुद्धि है जो मन का मार्गदर्शन करती कि "मैं चेतना हूँ|" जो व्यक्ति और भी उन्नत है वह समझ सकता है कि चेतना का स्त्रोत आत्मा है और सबके ऊपर परमात्मा है|
हमारे चारों ओर जो वस्तुए दृष्टिगोचर होती हैं ,वे भगवान् की अपार शक्ति का विस्तार हैं किन्तु भगवान् की एक परा या श्रेष्ठ शक्ति भी है जिसे चेतना कहते हैं|इस चेतना को उच्चतर अधिकारियों से समझना होता है किन्तु हम इसका अनुभव प्रत्यक्ष रूप से भी कर सकते हैं कि हमारे पूरे शरीर में चेतना प्रसारित है। यदि मैं अपने शरीर के किसी भी भाग में चुटकी काट दूँ तो मुझे पीड़ा होगी-इसका अर्थ हुआ कि मेरे पूरे शरीर में चेतना है|भगवतगीता में कृष्ण कहते हैं कि हमें यह समझने का प्रयास करना चाहिए कि चेतना पूरे शरीर में फैली हुई है और वह शाश्वत है|इसी तरह इस समूचे ब्रह्माण्ड में चेतना फैली हुई है|लेकिन वह हमारी चेतना नहीं है|वह ईश्वर की चेतना है|इस तरह परमातमा अपनी चेतना के द्वारा सर्वव्यापक हैं |जिसने यह समझ लिया है,समझ लो कि उसने कृष्णभावनामृत का शुभारम्  कर लिया है|
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Monday, 18 July 2016

भगवान् की सर्वव्यापकता की अनुभूति (द्वितीय भाग)

प्रथम भाग का शेष..
बद्ध जीव का चौथा दोष है,धोखा देने की प्रवृति|भले ही कोई मूर्ख हो,किन्तु मैं शेखी बघारूँगा कि मैं अत्यंत विद्वान हूँ|मोहग्रस्त तथा भूल करने वाला हर व्यक्ति मूर्ख है तथापि वह अपने को अच्युत प्रकाण्ड विद्वान मानता है|इस तरह सारे बद्ध जीवों की इन्द्रियाँ अपूर्ण होती हैं,सारे बद्ध जीव भूल करते हैं और मोहग्रस्त होते हैं तथा उनमें धोखा देने की प्रवृति होती है|
भला ऐसे जीवो से वास्तविक ज्ञान की आशा किस तरह की जा सकती है?उनसे वास्तविक ज्ञान प्राप्त करने की कोई संभावना नही है|कोई व्यक्ति चाहे वैज्ञानिक हो,दार्शनिक हो या अन्य कुछ,बद्ध होने के कारण वह पूर्ण सूचना नहीं दे पाता वह कितना ही शिक्षित क्यों न हो|यह एक तथ्य है|
तब यह प्रश्न किया जा सकता है कि पूरी सूचना किस तरह प्राप्त की जा सकती है?इसकी विधि यह है कि गुरुओं तथा शिष्यों की परम्परा से,जो कृष्ण से प्रारम्भ होती है,ज्ञान प्राप्त किया जाये|भगवतगीता में भगवान् कृष्ण अर्जुन से कहते है,"मैंने भगवतगीता का यह ज्ञान सर्वप्रथम सूर्यदेव को दिया,सूर्यदेव ने इसे अपने पुत्र मनु को दिया|मनु ने उसे अपने पुत्र इक्ष्वाकु को और इक्ष्वाकु ने उसे अपने पुत्र को दिया|इस तरह से यह ज्ञान हस्तांतरित होता रहा|किन्तु दुर्भाग्यवश यह परम्परा अब विछिन्न हो गई है|इसलिए हे अर्जुन!अब वही ज्ञान मैं तुम्हें प्रदान कर रहा हूँ क्योंकि तुम मेरे परम प्रिय मित्र तथा उत्तम भक्त हो|"यही सम्यक् ज्ञान प्राप्त करने की विधि है|उच्चतर स्त्रोतों से आने वाली दिव्य ध्वनि को ग्रहण करना चाहिए|सम्पूर्ण वैदिक ज्ञान दिव्य ध्वनि है जो भगवान् को समझने में हमारा सहायक है|
अतः प्रहलाद महाराज कहते हैं कि पूर्ण पुरषोतम भगवान् सर्वव्यापक परमात्मा से अभिन्न हैं|यही ज्ञान ब्रह्मसंहिता में भी दिया गया है कि भगवान् अपने दिव्य धाम में स्तिथ रहकर भी सर्वव्यापक हैं|उनके सर्वत्र उपस्थित रहने पर भी हम अपनी अपूर्ण इन्द्रियों के द्वारा उन्हें देख नही पाते|
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भगवान कृष्ण की सर्वव्यापकता की अनुभूति (प्रथम भाग)

प्रह्लाद महाराज ने अपने सहपाठियों को भगवान की सर्वव्यापकता के विषय में सूचना दी|यद्यपि भगवान् अपने विस्तारो तथा अपनी शक्तियो के द्वारा सर्वव्यापी हैं किन्तु इसका यह अर्थ यह नही है कि वे अपना व्यक्तित्व खो चुके हैं|यह महत्वपूर्ण बात है|यद्यपि वे सर्वव्यापी हैं तथापि वे पुरुष हैं|हमारी भौतिक विचारधारा के अनुसार यदि कोई वस्तु सर्वव्यापक होती है तो उसका व्यक्तित्व नहीं होता है,उसका कोई स्थानीकृत पक्ष नहीं रहता|लेकिन ईश्वर ऐसे नहीं है|उदाहरणार्थ,धूप सर्वव्यापी है किन्तु सूर्य का स्थानीय पक्ष सूर्यलोक है जिसे आप देख सकते हैं|इस तरह न केवल सूर्यलोक है अपितु सूर्यलोक के भीतर सूर्यदेव हैं जिनका नाम विवस्वान है|यह ज्ञान हमें वैदिक साहित्य से प्राप्त होता है|अन्य लोको में क्या हो रहा है इसको जानने के लिए हमारे पास प्रमाणिक स्त्रोतो से सुनने के अतिरिक्त कोई अन्य साधन नहीं है|आधुनिक सभ्यता में हम ऐसे विषयो पर वैज्ञानिकों प्रमाण मानते हैं|हम वैज्ञानिकों को यह कहते सुनते हैं,"हम चंद्रमा देख चुके है और यह ऐसा है,वैसा है|"और हम इस पर विश्वास कर लेते हैं|हम किसी वैज्ञानिक के साथ चंद्रमा देखने नहीं गये किन्तु हम उस पर विश्वाश कर लेते हैं|
ज्ञान का मूलाधार विश्वाश है|आप चाहे वैज्ञानिकों पर विश्वाश करे चाहे वेदों पर|यह आप पर निर्भर करता है कि किस स्त्रोत पर आपका विश्वाश है|अंतर इतना ही है कि वेदों से प्राप्त सूचना निर्देश है जबकि वैज्ञानिकों से प्राप्त सूचना सदोष है|वैज्ञानिकों की सूचना सदोष क्यों है?क्योंकि प्रकृति द्वारा बद्ध सामान्य व्यक्ति में चार दोष पाये जाते है|वे दोष कौन-कौन से हैं?पहला दोष है कि बद्ध मानव की इन्द्रियाँ अपूर्ण हैं|हम सूर्य को एक छोटे से गोले के रूप में देखते हैं?क्यों?क्योंकि वह पृथ्वी से बहुत दूर है किन्तु हम उसे एक छोटे गोले के रूप में देखते हैं|हर व्यक्ति जानता है कि हमारी देखने तथा सुनने आदि की शक्तियाँ सीमित हैं|चूँकि इन्द्रियाँ सीमित हैं इसलिए बद्ध जीव निश्चित रूप से भूल कर सकता है चाहे वह कितना भी बड़ा वैज्ञानिक क्यों न हो|अभी बहुत समय नहीं बीता जब इस देश के वैज्ञानिक प्रक्षेपास्त्र छोड़ रहे थे तो एक दुर्घटना हो गई और वह प्रक्षेपास्त्र तुरंत जलकर राख हो गया|इस तरह एक भूल हो गयी|बद्ध जीव भूलें करता रहेगा क्योंकि यह जीव का स्वभाव है|भूल चाहे छोटी हो या बहुत बड़ी किन्तु भौतिक प्रकृति द्वारा बद्ध मनुष्य निश्चित रूप से भूलें करेगा|
यही नहीं,बद्ध जीव मोहग्रस्त होता रहता है|यह तब होता है,जब वह किसी वस्तु को निरंतर दूसरी वस्तु समझता रहता है|उदाहरणार्थ,हम शरीर को स्वयं मान बैठते हैं|चूँकि मैं यह शरीर नहीं हूँ अतः मेरे द्वारा इस शरीर को स्वयं समझना मोह है|सारा संसार इसी मोह में है कि"मैं यह शरीर हूँ",इसलिए शांति नहीं है|मैं अपने कोभारतीय सोचता हूँ,आप अपने को अमरीकी मानते हैं और एक चीनी अपने को चीन का वासी सोचता है|आखिर "भारतीय,""अमरीकी,""चीनी" क्या हैं? यह शरीर पर आधारित मोह ही तो है|यही इसका सार है|
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Saturday, 16 July 2016

मैं कृष्ण से सर्वाधिक प्रेम करता हूँ (द्वितीय भाग/अंतिम भाग)

प्रथम भाग का शेष..
प्रत्येक व्यक्ति का भगवान् कृष्ण से कुछ न कुछ विशेष संबंध होता है जिसे वह भूल चुका है|किन्तु जैसे जैसे हम कृष्ण-भावनाभवित होते जाते हैं,वैसे वैसे कृष्ण के साथ हमारे सबंध की पुरानी चेतना क्रमशः स्पस्ट होती जाती है|और जब हमारी चेतना वास्तव में सुस्पष्ट हो जाती है हो हम कृष्ण के साथ अपने विशेष संबंध को समझ सकते है|कृष्ण के साथ हमारा संबंध पुत्र या दास के रूप में,मित्र के रूप में,माता-पिता के रूप में अथवा प्रेमिका या प्रिय पत्नी के रूप में हो सकता है|ये सारे संबंध इस भौतिक जगत् में विकृत रूप में प्रतिबिम्बित होते हैं|किन्तु कृष्णभावनामृत के पद को प्राप्त करते ही कृष्ण से हमारा पुराना संबंध फिर से जाग्रत हो उठता है|
हममे से हर व्यक्ति प्रेम करता है|सर्वप्रथम मैं अपने शरीर से प्रेम करता हूँ क्योंकि मेरी आत्मा इस शरीर के भीतर है|अतएव मैं अपनी आत्मा को अपने शरीर से बढ़कर प्रेम करता हूँ|किन्तु उस आत्मा का कृष्ण से घनिष्ठ संबंध है क्योंकि आत्मा कृष्ण का ही एक भिन्न अंश है|इसलिए मैं कृष्ण से सर्वाधिक प्रेम करता हूँ और चूँकि कृष्ण सर्वव्यापक हैं अतएव मैं हर वस्तु से प्रेम करता हूँ|
दुर्भाग्यवश हम भूल चुके हैं कि कृष्ण य ईश्वर सर्वव्यापक हैं|इस स्मृति को पुनर्जीवित करना है|अपने कृष्णभावनामृत को पुनर्जीवित करते ही हम हर वस्तु को कृष्ण से संबंधित कर सकेंगे और तब प्रत्येक वस्तु प्रेम करने योग्य हो जायेगी|मैं तुम्हे प्रेम करता हूँ या तुम मुझे प्रेम करते हो किन्तु यह प्रेम इस क्षणभंगुर शरीर के स्तर पर है|किन्तु जब कृष्ण-प्रेम विकसित हो जाता है तो मैं न केवल तुमसे प्रेम करूँगा अपितु मैं हर जीव से प्रेम करूँगा क्योंकि तब बाह्य उपाधि अर्थात् शरीर विस्मृत हो जायेगा|जब कोई व्यक्ति पूर्णतया कृष्ण भावनाभवित हो जाता है हो वह यह नही सोचता कि यह  मनुष्य है,यह पशु है,यह कुत्ता है,यह बिल्ली है,यह कीड़ा है|वह प्रत्येक को कृष्ण के भिन्नाश रूप में देखता है|इसकी सुंदर व्याख्या भगवतगीता में हुई है,"जो वास्तविक कृष्णभावनामृत का ज्ञाता है,वह इस ब्रह्माण्ड में प्रत्येक जीव को प्रेम करता है|"जब तक कोई व्यक्ति कृष्ण भावनाभवित पद पर स्तिथ नहीं हो जाता,तब तक विश्वबंधुत्व का प्रश्न ही नही उठता|
यदि हम वास्तव मे विश्वबंधुत्व के विचार को कार्यान्वित करना चाहते है,तो हमें भौतिक चेतना की अपेक्षा कृष्ण-भावनामृत के पद पर पहुचना होगा| जब तक हम भौतिक चेतना में रहेंगे हमारी प्रेय वस्तुओं की संख्या सीमित होगी किन्तु जब हम वास्तव में कृष्णभावनामृत में होंगे तो हमारे प्रेय सार्वभौम होंगे|प्रह्लाद महाराज यही कहते हैं,"जड़ वृक्षो से लेकर सर्वोच्च सजीव प्राणी ब्रह्मा तक में भगवान् अपने परमात्मा रूप के विस्तार में सर्वत्र उपस्थित हैं|जैसे ही हम कृष्ण भावनाभवित हो जाते हैं,पूर्ण पुरषोत्तम् भगवान के वह विस्तार परमातमा हमें प्रेरित करते हैं कि हम हर वस्तु को कृष्ण से संबंधित जानकर प्रेम करे|"
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Friday, 15 July 2016

मैं कृष्ण से सर्वाधिक प्रेम करता हूँ (प्रथम भाग)

अब प्रह्लाद महाराज भौतिक जीवन की जटिलताओं के विषय में आगे कहते हैं|वे आसक्त गृहस्थ की उपमा रेशम के कीट से देते हैं|रेशम का कीट अपने ही थूक से बनाये गए रेशमकोष में अपने को तब तक लपेटता रहता है,जब तक वह इस रेशमकोष मे बन्दी नहीं हो जाता|वह वहाँ से निकल नहीं सकता|इसी प्रकार भोतिकवादी गृहस्थ का बंधन इतना दृढ़ हो जाता है कि वह पारिवारिक आकर्षण रूपी कोष् से निकल नहीं पता|यद्यपि भौतिकवादी गृहस्थ जीवन में अनेकानेक कष्ट हैं किन्तु वह उनसे छूट नहीं पाता|क्यों? क्योंकि वह सोचता है कि मैथुन-भोग तथा स्वादिस्ट भोजन अत्यंत महत्वपूर्ण हैं|इसलिए अनेकानेक कष्टों के होने पर भी वह उनका परित्याग नहीं कर पता|
इस तरह जब कोई व्यक्ति पारिवारिक जीवन में अत्यधिक फंसा रहता है तो वह अपने जीवन से मुक्ति पाने के विषय में,सोच नहीं पाता|यद्यपि वह भौतिकवादी जीवन के तीन तापों से सदैव विचलित रहता है तथापि प्रबल पारिवारिक स्नेह के कारण वह बाहर नहीं आ पाता|वह यह नहीं जानता कि मात्र पारिवारिक स्नेहवश वह अपनी सीमित आयु को नष्ट कर रहा है|वह उस जीवन को नस्ट कर रहा है जो आत्म-साक्षात्कार के लिए,अपने वास्तविक आध्यात्मिक जीवन की अनुभूति करने के लिए मिला था|
प्रह्लाद महाराज पने आसुरी मित्रों से कहते हैं,"इसलिए तुम लोग उनकी संगति छोड़ दो जो भौतिक भोगों में आसक्त हैं|तुम लोग उन व्यक्तियो की संगति क्यों नही करते जो कृष्णभावनामृत का अनुशीलन कर रहे हैं|"यही उनका उपदेश है|वे अपने मित्रो से कहते हैं कि कृष्णभावनामृत को प्राप्त करना सरल है|क्यों? वस्तुतः कृष्णभावनामृत हमें अत्यंत प्रिय है किन्तु हम उसे भूल चुके हैं|अंतः जो व्यक्ति कृष्णभावनामृत को अंगीकार करता है वह इससे आधिकारिक प्रभावित होता है और अपनी भौतिक चेतना को भूल जाता है|
यदि आप विदेश में हैं तो आप अपने घर को,अपने परिवारजनों को तथा अपने मित्रों को भूल सकते हैं जो आपको अत्यंत प्रिय है|किन्तुव्यदि आपको आचनक उनकी स्मृति हो जाए तो आप तुरंत अभिभूत हो उठेंगे "मैं उनसे कैसे मिल सकूँगा?"इसी प्रकार कृष्ण के प्रति हमारा स्नेह इतना प्रगाढ़ है कि हमे तुरंत ही कृष्ण से अपना संबंध का स्मरण हो जाता है|
जारी....
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Friday, 8 July 2016

पारिवारिक मोह (पंचम भाग/अंतिम भाग)

चतुर्थ भाग का शेष..
अतएव पारिवारिक जीवन की निंदा नहीं की जाती|किन्तु यदि मनुष्य अपनी आध्यात्मिक पहचान भूल कर सांसारिक व्यापारों में फस जाता है,तो वह दुर्गति को प्राप्त होता है|उसके जीवन का उदेश्य नस्ट हो जाता है|कोई यह सोचता है कि मैं कामवासना से अपने को नही बचा सकता तो उसे चाहिए कि वह विवाह कर ले|इसकी संस्तुति है|लेकिन अवेध मैथुन न किया जाये|यदि कोई व्यक्ति किसी स्त्री को चाहता है या कोई स्त्री किसी पुरुष को चाहती है,तो उन्हें चाहिए कि विवाह करके कृष्णभावनामृत में जीवन बिताये|
जो व्यक्ति बचपन से ही कृष्णभावनामृत में प्रशिक्षित किया जाता है,भौतिक जीवन शैली के प्रति स्वभावतः उसकी रुचि काम हो जाती है और पचास वर्ष की आयु में वह ऐसे जीवन का परित्याग करना शुरू करता है? पति और पत्नी घर छोड़कर  एक साथ तीर्थ यात्रा पर चले जाते हैं|यदि कोई व्यक्ति पच्चीस वर्ष से लेकर पचास वर्ष की आयु तक पारिवारिक जीवन में रहा है,तो तब तक उसकी कुछ संताने अवश्य ही बड़ी हो जाती है|इस तरह पचास वर्ष की आयु में पति अपने पारिवारिक मामले अपने गृहस्थ जीवन बिताने वाले पुत्रो में से किसी को सौंप कर अपनी पत्नी के साथ पारिवारिक बंधनो को भुलाने के लिए किसी तीर्थस्थान की यात्रा पे जा सकता है|जब वह पुरुष पूरी तरह विरक्त हो जाता है,तो वह अपनी पत्नी से अपने पुत्रो के पास वापस चले जाने के लिए कहता है और स्वयं अकेला रह जा है|यही वैदिक प्रणाली है|हमे क्रमशः आध्यात्मिक जीवन में उन्नति करने के लिए अपने आप के अवसर देना चाहिए|अन्यथा यदि हम सारे जीवन भौतिक चेतना में ही बंधे रहे तो हम अपने कृष्ण चेतना में पूर्ण नहीं बन सकेंगे और इस मानव जीवन के सुअवसर को खो देंगे|
तथाकथित सुखी पारिवारिक जीवन का अर्थ है कि हमारी पत्नी तथा हमारी संताने हमे अत्यधिक प्रेम करती है|इस तरह हम जीवन का आनंद उठाते हैं| किन्तु हम यह नही जानते कि यह आनंद य भोग मिथ्या है और मिथ्या आधार पर टिका है|हमें पालक झपकते ही इस भोग को त्यागना पड़ता है|मृत्यु हमारे वश में नहीं है|भगवतगीता से हमे ये सीख मिलती है कि जो व्यक्ति अपनी पत्नी पर ज्यादा आसक्त रहता है तो मरने पर अगले जन्म में उसे स्त्री का शरीर प्राप्त होगा |यदि पत्नी अपने पति पर अत्यधिक अनुरक्त रहती है तो अगले जन्म में उसे पुरुष का शरीर प्राप्त होगा|इसी प्रकार यदि आप पारिवारिक व्यक्ति नही हैं बल्कि कुत्तो-बिल्लियो से अधिक लगाव रखते है तो अगले जीवन में आप कुता य बिल्ली होंगे |ये कर्म अर्थात् भौतिक प्रकृति के नियम हैं|
कहने का तात्पर्य यह है कि मनुष्य को तुरंत ही कृष्णभावनामृत शुरू कर देना चाहिए |माँ लीजिये कि कोई यह सोचता है,"मैं अपना यह खेलकूद का जीवन बिताने के बाद जब बूढ़ा हो जाऊंगा और मेरे पास करने के लिए कुछ नही होगा तो मैं कृष्णभावनामृत संघ में जाकर कुछ सुनूँगा|"निश्चय ही उस समय आध्यात्मिक जीवन बिताया जा सकता है किन्तु इसकी प्रतिभूति कहाँ है कि कोई व्यक्ति वृद्धवस्था तक जीवित रहेगा? मृत्यु किसी भी समय आ सकती है इसलिए आध्यात्मिक जीवन को टालना अत्यंत खतरनाक है|इसलिए मनुष्य को चाहिए कि तत्क्षण कृष्णभावनामृत के सुअवसर का लाभ उठाए|हरे कृष्ण,हरे कृष्ण,कृष्ण कृष्ण,हरे हरे,हरे राम,हरे राम,राम राम,हरे हरे के कीर्तन की विधि से प्रगति द्रुतगति से होती है तथा फल की प्राप्ति तत्काल होती है|
हम उन समस्त देवियों एवम् सज्जनो का आभार प्रकट करते है जो इस साहित्य को पढ़ते है,अनुरोध करेंगे कि घर पे खाली समय में हरे कृष्ण कीर्तन करें और कृष्णभावनामृत में ध्यान लगाये|हमे विश्वास है कि आपको यह विधि अत्यंत सुखकर तथा प्रभावशाली लगेगी|

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Wednesday, 6 July 2016

पारिवारिक मोह (चतुर्थ भाग)

तृतीय भाग का शेष..
प्रह्लाद महाराज कहते हैं कि इस अवस्था में ,जब आप भौतिकवाद में अत्यधिक लीन हों,तो आप कृष्णभावनामृत का अनुशीलन नहीं कर सकते|इसलिए मनुष्य को बालपन से ही कृष्णभावनामृत का अभ्यास करना चाहिए|निस्संदेह चैतन्य महाप्रभु इतने दयालु हैं कि वे कहते हैं,"कभी न करने की अपेक्षा विलंब से करना श्रेष्ठ है" यद्यपि तुम अपने बालपन से ही कृष्णभावनामृत को प्रारम्भ करने का अवसर गवाँ दिया हो,किन्तु तुम जैसी भी स्तिथि में हो वहीं से आरम्भ करो|यही चैतन्य महाप्रभु की शिक्षा है|उन्होंने यह कभी नहीं कहा कि चूँकि तुमने अपने बचपन से कृष्णभावनामृत नहीं शुरू किया इसलिए तुम उन्नति नहीं कर सकते|वे अत्यंत कृपालु हैं|उन्होंने हमें यह उत्तम हरे कृष्ण कीर्तन की विधि प्रदान की है-
हरे कृष्ण,हरे कृष्ण,कृष्ण कृष्ण,हरे हरे,हरे राम,हरे राम,राम राम,हरे हरे|आप चाहे जवान हो या बूढ़े,चाहे आप जो भी हो,बस इसे शुरू कर दें|आप यह नही जानते कि आपका जीवन कब समाप्त हो जायेगा|यदि आप निष्ठापूर्वक क्षणभर के लिए भी कीर्तन करते हैं,तो इनका बहुत प्रभाव पड़ेगा|यह आपको महान् से महान् संकट से,अगले जीवन में पशु बनने से बचा लेगा|
यद्यपि प्रह्लाद महाराज पाँच वर्ष के हैं किन्तु एक अत्यंत अनुभवी तथा शिक्षित व्यक्ति की तरह बोलते हैं क्योंकि उन्होंने अपने गुरु नारद मुनि से ज्ञान प्राप्त किया था|ज्ञान आयु पे निर्भर नही करता है|केवल आयु मे वृद्धि से ही कोई चतुर नहीं बन जाता|ऐसा संभव नहीं है|ज्ञान एक श्रेष्ठ स्त्रोत से ग्रहण करना नहीं होता,तभी मनुष्य बुद्धिमान हो सकता है|इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि कोई पांच वर्ष का बालक है या पचास वर्ष का बूढ़ा|जैसा कि कहा जाता है,"ज्ञान से मनुष्य कम आयु का होने पर भी वृद्ध माना जाता है|"
यद्यपि प्रह्लाद महाराज केवल पाँच वर्ष के थे किन्तु ज्ञान में उन्नत होने के कारण वे अपने सहपाठियों को सम्यक उपदेश दे रहे थे|कुछ लोगों को ये उपदेश अरुचिकर लग सकते हैं|मान लीजिये कोई व्यक्ति विवाहित है और प्रह्लाद का उपदेश है कि,"कृष्णभावनामृत ग्रहण कीजिए|"वह सोचेगा "मैं अपनी पत्नी को कैसे छोड़ सकता हूँ?" हम तो साथ साथ उठते,बैठते,बातें करते और आनंद मानते हैं|भला कैसे छोड़ सकता हूँ? पारिवारिक आकर्षण अत्यंत प्रबल होता है|
वैदिक प्रणाली के अनुसार मनुष्य को पचास वर्ष की आयु में अपना परिवार छोड़ना ही पड़ता है|उसे जाना ही पड़ेगा|इसका कोई दूसरा विकल्प नही है|प्रथम पच्चीस वर्ष विद्यार्थी जीवन के लिए हैं|पांच वर्ष से पच्चीस वर्ष की आयु तक उसे कृष्णभावनामृत की सुचारू रूप से शिक्षा दी जानी चाहिए|मनुष्य की शिक्षा का मूल सिद्धांत कृष्णभावनामृत के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं होना चाहिए|तभी इस लोक में तथा अगले लोक में यह जीवन सुखमय तथा सफल होगा |कृष्ण भावना भावित शिक्षा का अर्थ है कि मनुष्य को पूरी तरह भौतिक चेतना छोड़ने के लिए प्रशिक्षित किया गया है|यही सम्यक कृष्णभावनामृत है|
किन्तु यदि कोई विद्यार्थी कृष्णभावनामृत के सार को ग्रहण नहीं कर पाता तो उसे सुयोग्य पत्नी से विवाह करने और शांतिपूर्ण गृहस्थ जीवन बिताने की अनुमति दी जाती है|चूँकि उसे कृष्णभावनामृत के मूल सिद्धांत का प्रशिक्षण दिया जा चुका होता है इसलिए वह इस भौतिक जगत् में नहीं फसेगा|जो व्यक्ति सादा जीवन बिताता है-सादा जीवन और उच्च विचार-वह पारिवारिक जीवन में भी कृष्णभावनामृत में प्रगति कर सकता है |
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Monday, 4 July 2016

पारिवारिक मोह (तृतीय भाग)

द्वितीय भाग का शेष..
बालक यदि कृष्णभावनामृत में प्रशिक्षित नहीं रहता और उल्टे वह भौतिकवाद में प्रगति कर लेता है,तो उसके लिए आध्यात्मिक जीवन विकसित कर पन कठिन है|यह भौतिकवाद क्या है? भौतिकवाद का अर्थ है कि इस जगत् में हम सभी आत्माएँ होते हुए भी इस जगत का किसी न किसी प्रकार से भोग करना चाहते हैं|आनंद आध्यात्मिक जगत् में कृष्ण से संबंधित अपने शुद्ध रूप में विधमान रहता है|किन्तु हम यहाँ कुलषित सुख का भोग कर रहे है|
भौतिक भोग का मूल सिद्धांत मैथुन है|इसलिए मैथुन न केवल समाज में मिलेगा अपितु बिल्ली-समाज,कुत्ता समाज,पक्षी समाज सभी में मिलेगा|दिन में कबूतर कम से कम बीस बार संभोग करता है यही उसका आनंद है|
श्रीमदभगवतं द्वारा यह पुष्टि होती है कि भौतिक भोग नर तथा नारी के यौन-मिलाप से अधिक किसी अन्य पर आधारित नहीं है|प्रारम्भ में कोई लड़का सोचता है,"वाह!वह लड़की कितनी सुंदर है" और लड़की कहती है कि वह लड़का उत्तम है|जब वे मिलते हैं तो भौतिक कल्मष अधिक प्रगाढ़ हो जाता है|और जब वे संभोग करते हैं,तो वे और अधिक लिप्त हो जाते हैं|कैसे?जैसे ही लड़का तथा लड़की विवाहित हो जाते है,वे एक घर चाहते हैं|फिर उनके बच्चे उत्पन्न होते हैं|जब बच्चे जन्म लेते हैं तो वे सामाजिक मान्यता-समाज ,मैत्री तथा प्रेम चाहते हैं|इस तरह भौतिक आसक्ति बढ़ती जाती है|
इन सभी में धन की आवशयकता होती है|जो व्यक्ति अतीव भौतिकवादी होता है वह किसी को भी ठग सकता है,किसी का भी वध कर सकता है,धन की मांग कर सकता है,उधार ले सकता है या चोरी कर सकता है,कोई भी कार्य जिससे धन प्राप्त हो सके ,कर सकता है|वह जानता है कि उसका घर,उसका परिवार,उसकी पत्नी और बच्चे सर्वदा विधमान नही रहेंगे|वे समुद्र के बुलबुले के समान हैं|जो उत्पन्न होते हैं थोड़ी देर में चले जाते हैं|किन्तु वह अत्यधिक आसक्त रहता है|उसके परिपालन के लिए आवश्यक धन प्राप्त करने के लिए वह अपने आध्यात्मिक विकास की बलि दे देता है|"मैं शरीर हूँ|मैं इस भौतिक जगत का हूँ|मैं इस देश का हूँ,मैं इस जाति का हूँ,मैं इस धर्म का हूँ और मैं इस परिवार से संबंधित हूँ|"यह विकृत चेतना बढ़ती ही जाती है|उसका कृष्णभावनामृत कहाँ है?वह इतनी गहराई तक फस जाता है कि उसके लिए धन अपने जीवन से भी अधिक मूल्यवान बन जाता है|दूसरे शब्दों में वह धन के लिए अपने जीवन को खतरे में डाल सकता है|चाहे कोई गृहस्थ हो या श्रमिक,व्यापारी हो या चोर-डकैत,या धूर्त-हर व्यक्ति धन के पीछे लगा हुआ है|यही मोह है|इस बंधन में वह अपने को विनिष्ट कर देता है|
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पारिवारिक मोह (द्वितीय भाग)

प्रथम भाग का शेष...
ब्रह्मचर्य के अनेक विधि-विधान हैं|उदाहरणार्थ,किसी का पिता कितना ही धनी क्यों न हो,एक ब्रह्मचारी अपने गुरु के निर्देशन में प्रशिक्षित होने के लिए उसकी शरण में एक दास की तरह रहता है और एक तुच्छ दास की भांति कार्य करता है|यह कैसे संभव है?हमें इसका वास्तविक अनुभव हो रहा है कि अत्यंत सम्मानित परिवारों के बहुत ही अच्छे बालक यहाँ पर किसी भी तरह का कार्य करने में संकोच नहीँ करते|वे थालियाँ धोते हैं,फर्श साफ करते हैं,वे हर प्रकार का कार्य करते हैं|एक शिष्य की माता को अपने बेटे पर आश्चर्य हुआ,जब वह अपने घर गया|इसके पूर्व वह दूकान तक भी नहीँ जाता था किन्तु अब वह चौबीसों घंटो काम में लगा रहता है|जब तक आनंद की अनुभूति न हो,भला कोई व्यक्ति कृष्णभावनामृत जैसी विधि में क्यों संलग्न होने लगा?यह केवल हरे कृष्ण कीर्तन करने से ही है|यही हरे कृष्ण मंत्र हमारी एकमात्र निधि है|मनुष्य एकमात्र कृष्णभावनामृत से प्रसन्न रह सकता है|वस्तुतः यह आनंदपूर्ण जीवन है|किन्तु बिना प्रिशिक्षित हुए ऐसा जीवन बिताया नहीं जा सकता|
प्रह्लाद महाराज कहते हैं कि हर व्यक्ति पारिवारिक स्नेह से बंधा है|जो व्यक्ति पारिवारिक मामलों में अनुरक्त रहता है वह अपनी इन्द्रियों को वश मे नही कर सकता|स्वभावतः हर व्यक्ति किसी न किसी से प्रेम करना चाहता है|उसे समाज,मैत्री तथा प्रेम की आवश्यकता होती है|ये आत्मा की माँगे हैं किन्तु वे विकृत रूप मे प्रतिबिम्बित हो रही हैं|मैंने देखा है कि आपके देश के अनेक पुरुषों तथा स्त्रियों का कोई पारिवारिक जीवन नहीं है,बल्कि उन्होंने अपना प्रेम कुत्तो-बिल्लियों में स्थापित कर रखा है क्योंकि वे किसी न किसी से प्रेम करना चाहते हैं|किन्तु किसी को उपयुक्त न पाकर अपना बहुमूल्य प्रेम कुत्तो -बिल्लियों को देते है|हमारा कार्य इस प्रेम को ,जिसे कहीं न कहीं स्थापित करना ही है ,कृष्ण कर स्थानांतरित करना |यही कृष्णभावनामृत है|यदि आप अपने प्रेम को कृष्ण पर स्थानांतरित करते है तो यह सिद्धि है|किन्तु आजकल लोगो को हताश किया तथा ठगा जा रहा है अतएव उन्हें इसका ज्ञान नहीं रहता कि वे अपना प्रेम कहाँ स्थापित करें |अतः अंत मे वे कुत्तो-बिल्लियों पर अपना प्रेम स्थापित कर देते हैं|
हर व्यक्ति भौतिक प्रेम से बद्ध है|भौतिक प्रेम में उन्नत व्यक्ति के लिए आध्यात्मिक जीवन विकसित कर पाना बहुत कठिन है क्योंकि प्रेम का यह बंधन अत्यंत बलशाली होता है|इसलिए प्रह्लाद महाराज प्रस्ताव रखते हैं कि मनुष्य को बाल्य-काल से ही कृष्णभावनामृत सीखना चाहिए |जब बालक पाँच-छह वर्ष का हो जाता है-जैसे ही उसकी चेतना विकसित हो जाती है-उसे प्रशिक्षण पाने के लिए पाठशाला भेज दिया जाता है|प्रह्लाद महाराज कहते हैं कि उसकी शिक्षा प्रारम्भ से ही कृष्णभावनामृत होनी चाहिए |पांच से लेकर पंद्रह वर्ष तक की अवधि अत्यंत मूल्यवान होती है|आप किसी भी बालक को कृष्णभावनामृत का प्रशिक्षण दे सकते हैं और वह उसमे सिद्ध हो जायेगा|
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Saturday, 2 July 2016

पारिवारिक मोह (प्रथम भाग)

पारिवारिक मोह

प्रह्लाद महाराज ने अपने मित्रो से कहा, "तुम्हे तुरंत ही कृष्णभावनामृत शुरू कर देना चाहिए|" सारे बालक नास्तिक भौतिकवादी परिवारों में जन्मे थे किन्तु सौभाग्यवश उन्हें प्रह्लाद महाराज की संगति प्राप्त थी जो अपने जन्म से ही भगवान् के महान भक्त थे| जब भी उन्हें अवसर मिलता,और जब अध्यापक कक्षा के बाहर होता तो वे कहा करते , "मित्रों! आओ ,हम कृष्ण कीर्तन करें|यह कृष्णभावनामृत शुरू करने का समय हैं|"
किन्तु जैसा कि हमने अभी कहा ,किसी बालक ने कहा होगा,"किन्तु अभी हम बच्चे हैं|हमें खेलने दीजिये|हम तुरंत मरने वाले नही है,हुमे कुछ आनंद लेने दीजिये|अतः बाद में कृष्णभावनामृत शुरू करेंगे|" लोग यह नही जानते कि कृष्णभावनामृत सर्वोच्च आनंद है|वे सोचते हैं कि जो बालक और बालिकाए इस कृष्णभावनामृत में सम्मलित हुए हैं,वे मूर्ख हैं|"वे प्रभुपाद के प्रभाव से इसमे सम्मिलित हुए हैं और उन्होंने भोगने योग्य अपनी सारी वस्तुए छोड़ दी हैं|" किन्तु वास्तव मैं ऐसा नही है |वे सब बुद्धिमान ,शिक्षित बालक-बालिकाए हैं और अत्यंत सम्मानित परिवारो से आये हैं|वे मूर्ख नही हैं|वे हमारे संघ में सचमुच ही जीवन का आनंद ले रहे हैं अन्यथा इस आंदोलन के लिए वे अपना मूल्यवान समय अर्पित न करते|
वस्तुतः कृष्णभावनामृत में आनंदमय जीवन है लेकिन लोगो को इसका पता नही है|वे कहते है ,"इस कृष्णभावनामृत से क्या लाभ है?" जब मनुष्य इन्द्रियतृप्ति में फसकर बड़ा होता है तो उसमें से निकल पाना बहुत कठिन होता है|इसलिए वैदिक नियमो के अनुसार पाँच वर्ष की अवस्था से ही विद्यार्थी जीवन में बालको को आध्यात्मिक जीवन के विषय में शिक्षा दी जाती हैं|इसे ब्रह्मचर्य कहते हैं|एक ब्रह्मचारी परम चेतना अर्थात कृष्णभावनामृत या ब्रह्म चेतना प्राप्त करने में अपना सारा जीवन अर्पित कर देता|
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Sunday, 26 June 2016

हम अपना जीवन नस्ट कर रहे हैं ( द्वितीय भाग/अंतिम भाग)

यदि आप उन कृष्ण कर पूर्णतया आश्रित हैं ,जो कुत्तो,पक्षियों और पशुओ को -84,00,000 योनियों के जीवों को- भोजन प्रदान करते हैं, तो फिर वे आपको भोजन क्यों नहीं देंगे? यह धरना समर्पण का लक्षण है |किन्तु हुमें यह नही सोचना चाहिए कि कृष्ण मुझे भोजन दे रहे हैं अतः मैं अब सो जाऊंगा|आपको बिना भय के कार्य करना है|आपको कृष्ण के लालन-पालन तथा संरक्षण पर पूर्ण विश्वास रखते हुए कृष्णभावनामृत में पूरी तरह से लग जाना चाहिए|
आइये ,हम अपनी आयु की गणना करें |इस युग में ऐसा कहा जाता है कि हम अधिक से अधिक एक सौ वर्ष तक जीवित रह सकते हैं |पहले सत्य-युग में ,सत्वगुण के युग में लोग 1 लाख वर्षो तक जीवित रहते थे|अगले युग त्रेता में वे 10 हज़ार वर्षो तक जीते थे और उसके बाद वाले युग ,द्वापर में 1 हज़ार वर्षो तक|अब इस कलियुग में यह अनुमान 100 वर्ष का है|किन्तु जैसे जैसे कलियुग अग्रसर होगा,हमारी आयु और भी घटती जायेगी|यह हमारी आधुनिक सभ्यता की तथाकथित उन्नति है|हुमें इसका बड़ा गर्व रहता है की हम सुखी हैं और अपनी सभ्यता में सुधार ला रहे हैं|किन्तु इसका परिणाम यह है कि हम भौतिक जीवन का भोग करने का प्रयास तो करते हैं किन्तु हमारी आयु कम होती जा रही है|
यदि हम यह मान लें कि मनुष्य एक सौ वर्षो तक जीवित रहता है और यदि उसे आध्यात्मिक जीवन का कोई ज्ञान नहीं है,तो उसका आधा जीवन रात में सोने तथा संभोग करने में बीत जाता है|उसकी रुचि अन्य किसी कार्य में नहीं रहती|और दिन के समय वह क्या करता है?"धन कहाँ हैं?धन कहाँ है? मुझे इस शरीर को बनाये रखना है|" और जब उसके पास धन आ जाता है,तो वह कहता है कि क्यों न मैं इसका उपयोग अपनी पत्नी और बच्चों के लिए करूँ? तो फिर उसकी आध्यात्मिकता अनुभूति कहाँ रही? रात में वह अपना समय सोने मे तथा संभोग करने में बिताता है और दिन में धन अर्जित करने के लिए वह कठोर श्रम में समय बिताता है|क्या जीवन में उसका यही उद्देश्य है? ऐसा जीवन कितना भयावह है!
साधारण व्यक्ति बालपन में भ्रमित रहता है और निरर्थक खेल खेलता है|आप बीस वर्षो तक इसी तरह करते रह सकते हैं|तत्पश्चात जब आप वृद्ध होते हैं,तो फिर से बीस वर्षो तक कुछ नही कर सकते|जब व्यक्ति वृद्ध हो जाता है,तो उसकी इन्द्रिय काम नही कर सकती |आपने अनेक वृद्ध व्यक्तियो को देखा होगा; वे विश्राम करने के अतिरिक्त कुछ नही कर सकते |अतः वृद्धवस्था में अस्सी वर्ष की आयु होते ही सारा काम ठप्प हो जाता है|इसलिए प्रारम्भ से लेकर बीस वर्ष की आयु तक सारे के सारे का समय नस्ट हो जाता है और यदि आप एक सौ वर्ष तक जीवित भी रहें,तो जीवन की अंतिम अवस्था के बीस वर्ष भी नस्ट हो जाते हैं| इस तरह आपके जीवन के चालीस वर्ष ऐसे ही नस्ट हो जाते हैं|बीच की आयु में यौन-क्षुधा इतनी प्रबल होती है कि इसमे भी बीस वर्ष नस्ट हो जाते हैं|इस तरह बीस,फिर बीस,तब बीस कुल साठ वर्ष नस्ट हो जाते हैं|जीवन का यह विश्लेषण प्रह्लाद महाराज द्वारा दिया गया है|हम अपने जीवन को कृष्णभावनामृत में उन्नति करने में न लगाकर उसे चौपट कर रहे हैं|
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Saturday, 4 June 2016

हम अपना जीवन नष्ट कर रहे हैं (प्रथम भाग)

अतएव हमें अपनी इंद्रियों को भौतिक सुख बढ़ाने के लिए प्रेरित करने के इक्छुक न बनकर कृष्णभावनामृत का अभ्यास करके आध्यात्मिक सुख पाने का प्रयास करना चाहिए |जैसा प्रह्लाद महाराज कहते हैं,"यद्यपि इस मानव शरीर में तुम्हारा जीवन क्षणिक है किन्तु है अत्यंत मूल्यवान| अतएव अपने भौतिक इंद्रियभोग को बढ़ाने का प्रयास करने की अपेक्षा तुम्हारा कर्तव्य यह है कि अपने कार्यो को किसी न किसी तरह कृष्णभावनामृत से जोड़ो|"
मनुष्य शरीर से ही उच्चतर बुद्धि आती है|चूँकि हुमें उच्चतर चेतना मिली है इसलिए जीवन में हुमें उच्चतर आनंद के लिए प्रयत्न करना चाहिए-यह आधयत्मिक आनंद है|इस आध्यात्मिक आनंद को कैसे प्राप्त किया ज सकता है? मनुष्य को चाहिए कि भगवान् की सेवा मे लीन रहे क्योंकि वे ही मुक्ति रूपी आनंद प्रदान करने वाले हैं|हमें ध्यान कृष्ण के चरणकमलों को प्राप्त करने में लगाना चाहिए जो हमारा इस भौतिक जगत् से उद्धार करने वाले हैं|
किन्तु क्या हम इस जीवन में भोग नहीँ कर सकते और अगले जीवन में कृष्ण की सेवा में अपने को नहीं लगा सकते ? प्रह्लाद महाराज का उत्तर है,"अभी हम भौतिक बंधन में हैं|इस समय मुझे यह शरीर मिला है किन्तु कुछ वर्षो बाद मैं यह शरीर त्याग कर अन्य शरीर धारण करने के लिए बाध्य होऊंगा| एक बार एक शरीर पा लेने पर तथा अपने शरीर की इन्द्रियों के आदेशानुसार भोग करने पर हम ऐसी इन्द्रिय तृप्ति से दूसरे शरीर को तैयार करते हैं और यह दूसरा शरीर अपनी इच्छा के अनुसार प्राप्त होता है|" इसकी कोई प्रितिभुति नहीं है की आपको मनुष्य शरीर ही मिले|यह तो आपके कर्म पर निर्भर करेगा|यदि आप एक देवता की तरह कर्म करेंगे,तो आपको देवता का शरीर प्राप्त होगा,यदि आप कुत्ते की तरह कर्म करेंगे तो आपको कुत्ते  का शरीर मिलेगा |मृत्यु के समय आपका भाग्य आपके हाथ में नही होता-यह प्रकृति के हाथ मैं होता है |यह हमारा कार्य नहीं कि  हम यह मनोकल्पना करें कि हमें अगला कौन स भौतिक शरीर मिलेगा|इस समय तो हम इतना ही समझ लें कि यह मनुष्य शरीर हमारी आध्यात्मिक चेतना अर्थात् हमारे कृष्णभावनामृत को विकसित करने का सुअवसर है|इसलिए हमे तुरंत कृष्ण की सेवा मे संलग्न हो जाना चाहिए |तभी हम प्रगति कर सकेंगे|
परंतु हम कब तक ऐसा करें?  जब तक यह शरीर कर्म कर सकता है तब तक|हम यह नही जानते कि यह कब काम करना बंद कर देगा|महान संत परीक्षित महाराज को तो सात दिन का समय मिला था ,"एक सप्ताह में तुम्हारा शरीर-पात हो जायेगा | किंतु हम नही जानते कि हमारा शरीर-पात कब हो जायेगा|हम जब भी सड़क पे होते है तो अकस्मात दुर्घटना हो सकती है |हमें सदैव तैयार रहना चाहिए|मृत्यु सदैव उपस्थित रहती है|हमें आशावादिता से यह नही सोचना चाहिए की हर कोई मर रहा है तो फिर आप क्यों जीवित रहेंगे? आपके पिता मारे हैं,प्रपितामह मरे हैं,अन्य सम्बन्धी भी मरे हैं तो फिर आप क्यों जीवित रहेंगे? आप भी मरेंगे|आपकी संताने भी मरेंगी|अतएव इसके पूर्व की मृत्यु आए,जब तक मानव बुद्धि है,हम कृष्णभावनामृत में जुट जाएँ|प्रह्लाद महाराज की यही संस्तुति है |
हम नही जानते कि यह शरीर कब काम करना बंद कर दे अतएव हमे तुरंत ही कृष्णभावनामृत में प्रवृत होकर उसी के अनुसार कर्म करना चाहिए|"किन्तु यदि मैं तुरंत कृष्णभावनामृत मे लग जाउ तो मेरी जीविका कैसे चलेगी ?" इसकी व्यवस्था है|मुझे आप लोगोँ से अपने एक शिष्य के विश्वास के विषय मे वर्णन करते हुए अत्यंत प्रसन्नता हो रही है|उससे असहमत एक अन्य शिष्य ने कहा, "तुम इसकी देखरेख नहीं करते कि प्रतिष्ठान को कैसे चलाया जाये|" इस पर उसने उत्तर दिया "अरे ! कृष्ण सब प्रदान करेंगे|" यह अति उत्तम विचार है|इसे सुनकर मैं हर्षित हुआ| यदि कुत्ते ,बिल्ली तथा सुअर भोजन पा सकते है,तो क्या हमारे कृष्ण हमारे भोजन का प्रबंध नही करेंगे? यदि हम पूरी तरह कृष्णभावनाभवित हों और उनकी सेवा करते हों |क्या कृष्ण कृतघ्न है? नहीं|
भगवतगीता में भगवान् कहते है,"है अर्जुन!मैं सभी पर समभाव रखता हूँ|मैं किसी से ईर्ष्या नहीं करता और न ही कोई मेरा विशेष मित्र है,परंतु जो कृष्णभावनामृत में संलग्न रहता है उसका मैं विशेष ध्यान रखता हूँ|" चूँकि एक छोटा बालक अपने माता-पिता की कृपा पे पूरी तरह आश्रित रहता है,अतएव वे बालक पे विशेष ध्यान रखते हैं|यद्यपि माता-पिता सारे बालकों पे समान रूप से दयालु होते हैं|किन्तु वे छोटे बालक,जो सदैव "माँ,माँ" चिल्लाते है उन पर विशेष ध्यान दिया जाता है|"क्या है मेरे लाल? बोलो?" यह स्वाभिक है|
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Saturday, 14 May 2016

सर्वाधिक प्रिय पुरुष (अंतिम भाग)

चतुर्थ भाग का शेष....
इस भौतिक जगत् में जीव एक आध्यात्मिक प्राणी है, किन्तु उसमें भोग करने की अर्थात भौतिक शक्ति का शोषण करने की प्रवृति होरी है इसलिए उसे शरीर प्राप्त हुआ है| जीवो की 84,00,000 योनियाँ हैं और हर योनि का प्रथक् शरीर है|शरीर के अनुसार ही उसमे विशिष्ट इन्द्रिया होती हैं जिनसे वे किसी विशेष आनंद का भोग कर सकते हैं |मान लीजिये कि आपको एक कँटीली झाड़ी दे दी जाये और कहा जाय , "देवियो और सज्जनो! यह एक अत्युत्तम भोजन है| यह ऊंटो द्वारा प्रमाणित है|यह अति उत्तम है |" तो क्या आप इसे खाना पसंद करेंगे?"नहीं, आप यह क्या व्यर्थ की वस्तु मुझे दे रहे हैं?" आप कहेंगे, चूँकि आपको ऊँट से भिन्न शरीर मिला हुआ है अतएव आपको कँटीली झाड़िया नही भाती| किन्तु यही झाड़ी ऊँट को दे दी जाये तो वह सोचेगा कि यह तो अत्युत्तम आहार है|
यदि सुअर तथा ऊँट बिना विकट संघर्ष के इन्द्रिय तृप्ति का भोग कर सकते है तो हम मनुष्य क्यों नहीं कर सकते? हम कर सकते हैं किन्तु यह हमारी चरम उपलब्धि नहीं होगी| चाहे कोई सुअर य ऊँट अथवा मनुष्य ,इन्द्रिय तृप्ति भोगने की सुविधाएँ प्रकृति द्वारा प्रदान की जाती हैं |अतएव वे सुविधाएँ जो आपको प्रकृति के नियम द्वारा मिलनी ही हैं उनके लिए आप श्रम क्यों करें? प्रत्येक योनि में शारीरिक माँगो की तुष्टि की व्यवस्था प्रकृति द्वारा की जाती है |इस तृप्ति की व्यवस्था उसी तरह की जाती है जिस तरह दुःख की व्यवस्था की जाती रहती है|क्या आप चाहेंगे की आपको ज्वर चढ़े? नहीं| ज्वर क्यों चढ़ता है? मैं नही जानता|किन्तु यह चढ़ता ही है, है न! क्या आप इसके लिए प्रयास करते है? नहीं| तो यह चढ़ता कैसे है? प्रकृति से|यही एकमात्र उत्तर है|यदि आपका कष्ट प्रकृति द्वारा प्रदत्त है तो आपका सुख भी प्रकृतिजन्य है|इसके विषय मे चिंता न करें|यही प्रहलाद महाराज का आदेश है| यदि आपको बिना प्रयास के ही जीवन मैं कष्ट मिलते हैं,ति सुख भी बिना प्रयास के प्राप्त होगा|
तो इस मनुष्य जीवन का वास्तविक प्रयोजन क्या है? "कृष्णभावनामृत का अनुशीलन|" अन्य सारी वस्तुऍ प्रकृति के नियमो द्वारा, जो अनंततः ईश्वर का नियम है,प्राप्त हो जायेंगी |यदि मैं प्रयास न भी करूँ तो मुझे अपने विगत कर्म तथा शरीर के कारण ,जो भी मिलना है,वह प्रदान किया जायेगा| अतएव आपकी मुख्य चिंता मनुष्य जीवन के उच्चतर लक्ष्य को खोज निकालने की होनी चाहिए🌹🌹🌹🌹
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Wednesday, 11 May 2016

सर्वाधिक प्रिय पुरुष (चतुर्थ भाग)

तृतीय भाग का शेष..
यह आत्मा क्या है? यह आत्मा भगवान् का अंश है| जिस तरह हम हाथ या अंगुली की रक्षा करना चाहते हैं क्योंकि वह पूरे शरीर का अंग है,उसी तरह हम अपने को बचाना चाहते हैं क्योंकि यही भगवान् की रक्षा-विधि है| भगवान् को रक्षा की आवश्यकता नही होती यह तो उनके प्रति हमारे प्रेम की अभिव्यक्ति है जो अब विकृत हो चुकी है| अँगुली तथा हाथ सारे शरीर के हितार्थ काम करने के लिए हैं | जैसे ही मैं चाहता हूँ कि मेरा हाथ यहां आये तो वह तुरंत आ जाता है और जैसे ही मैं चाहता हूँ कि अँगुली मृदंग बजाये,वह बजने लगती है| यह प्राकृतिक स्तिथि है| इसी तरह हम अपनी शक्ति को भगवान् की सेवा में लगाने के लिए उनकी खोज करते हैं किन्तु माया शक्ति के प्रभाव के कारण हम इसे जान नहीँ पाते | यही हमारी भूल है| मनुष्य जीवन में हमे यह सुयोग मिला है कि हम अपनी वास्तविक स्तिथि को समझें | चूँकि आप सभी मनुष्य हैं इसलिए आप सभी कृष्णभावनामृत सीखने यहाँ आये हैं जो कि आपके जीवन का वास्तविक लक्ष्य है|मैं कुत्ते बिल्लियों को यहाँ बैठने के लिए आमंत्रित नही कर सकता | यही अंतर है मनुष्यो और कुत्ते-बिल्लियों में| मनुष्य जीवन के वास्तविक लक्ष्य को प्राप्त करने कि आवश्यकता को समझ सकता है| किन्तु यदि वह इस सुअवसर को खो देता है ,तो इसे महान अनर्थ समझना चाहिए|
प्रह्लाद महाराज कहते हैं,"ईश्वर सर्वाधिक प्रिय व्यक्ति हैं|हमें उनकी खोज करनी चाहिए|"तब जीवन की भौतिक आवश्यकताओं के विषय में क्या होगा? प्रह्लाद महाराज उत्तर देते हैं,"तुम लोग इन्द्रिय तृप्ति के प्रति आसक्त हो किन्तु इन्द्रिय तृप्ति तो इस शरीर के संसर्ग से स्वतः ही प्राप्त हो जाती है|" चूँकि सुअर को एक विशेष प्रकार का शरीर मिला है अतएव उसकी इन्द्रिय तृप्ति मल भक्षण से होती है जो आप सब के लिए घृणित वस्तु है| मल त्याग करने के बाद आप दुर्गंध से बचने के लिए तत्काल ही स्थान त्याग कर देते है लेकिन सुअर प्रतीक्षा करता रहता है|जैसे ही आप मल त्यागेंगे ,वह तुरंत उसका आनंद उठता है| अतएव शरीर के विविध प्रकारो के अनुसार इन्द्रिय तृप्ति भिन्न भिन्न प्रकार की होती है| इन्द्रिय तृप्ति प्रत्येक देहधारी को प्राप्त होती है| ऐसा कभी मत सोचे की मल खाने वाले सुअर दुखी है|नहीं|वे मल भक्षण कर मोटे हो रहे हैं|वे अत्यंत सुखी है|
दूसरा उदाहरण ऊट का है |ऊट कटीली झाड़ियो के प्रति आसक्त होता है| क्यों? क्योंकि जब वह कटीली झाड़िया खाता है तो वो उसकी जीभ काट देती हैं| जिससे उसका रक्त चुने लगता हैं और वह अपने ही रक्त का आस्वादन करता है|तब वह सोचता है,"में आनंद प रहा हूँ|"यह इन्द्रिय तृप्ति है|यौन जीवन भी ऐसा ही है|हम अपने ही रक्त का आस्वादन करते हैं और सोचते है कि हम आनंद लूट रहे हैं|यही हमारी मूर्खता है|
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Monday, 9 May 2016

सर्वाधिक प्रिय पुरुष (तृतीय भाग)

द्वितीय भाग का शेष..

भगवतगीता में कृष्ण कहते हैं कि पुण्य कर्मो से मनुष्य सर्वोच्च भौतिक लोक अर्थात ब्रह्मलोक को प्राप्त कर सकता है जहाँ पर जीवन की अवधि करोड़ो वर्ष की है | आप वहाँ की जीवन-अवधि की गणना नही कर सकते, आपका सारा गणित का ज्ञान निष्फल हो जाता है |भगवतगीता मे कहा गया है की ब्रह्मा का जीवन इतना दीर्घ है कि हमारे  4,32,00,00,000 वर्ष उनके बारह घंटो के तुल्य हैं| कृष्ण कहते है,"तुम चींटी से लेकर ब्रह्मा तक कोई भी पद इच्छानुसार प्राप्त कर सकते हो पर वहां पर भी जन्म-मरण की पुनरावृत्ति होगी| किन्तु यदि तुम कृष्णभावनामृत का अभ्यास करके मेरे पास आते हो,तो तुम्हें इस कष्ट-प्रद भौतिक जगत् में पुनः नही आना होगा|"
प्रह्लाद महाराज यही बात कहते है,"हमें अपने सर्वाधिक प्रिय मित्र,परम भगवान् कृष्ण की खोज करनी चाहिए"वे हमारे सर्वाधिक प्रिय मित्र क्यों हैं? वे स्वाभिक रूप से प्रिय है| क्या आपने कभी विचार किया है कि आप किसे सर्वाधिक प्रिय वस्तु मानते हैं? आप स्वयं ही वह सर्वाधिक प्रिय वस्तु हैं| उदाहरणतः मैं यहाँ बैठा हूँ किन्तु यदि आग लगने की चेतावनी दी जाये ,तो मैं तुरंत अपनी रक्षा के विषय में सोचूँगा |मैं सर्वप्रथम सोचूंगा कि मैं अपने आप को किस प्रकार बचा सकता हूँ | तब हम अपने मित्रों और अपने संबंधियो तक को भूल जाते हैं और यही भाव रहता है कि सर्वप्रथम मैं अपने को बचा लूँ | आत्म-रक्षा प्रकृति का सर्वप्रथम नियम है|
स्थूल दृश्टिकोण से आत्मा, "स्वयं" शब्द का अर्थ शरीर है किन्तु सूक्ष्म अर्थ में मन य बुद्धि ही आत्मा है| और वस्तुतः आत्मा का अर्थ आत्मा ही है| स्थूल अवस्था में हम अपने शरीर की रक्षा करने तथा उसे तुष्ट करने में अत्यधिक रुचि लेते हैं किन्तु सूक्ष्मतर अवस्था में मन तथा बुद्धि को तुष्ट करने में रुचि लेते हैं|किन्तु मानसिक तथा बौद्धिक स्तर के ऊपर , जहाँ का वातावरण अध्यतमिक्रत है,हम यह समझ सकते है कि अहं ब्रहास्मि अर्थात् "मैं यह मन, बुद्धि या शरीर नही हूँ- मैं तो आत्मा हूँ - भगवान् का भीन्नाशं|" यही है वास्तविक समझ य ज्ञान का स्तर य पद|
प्रह्लाद महाराज कहते हैं कि समस्त जीवों में से विष्णु परम हितैषी हैं| इसलिए हम सभी उनकी खोज में लगे हैं| जब बालक रोता है,तो वह क्या चाहता है? अपनी माता|किन्तु इसे व्यक्त करने के लिए  उसके पास कोई भाषा नही होती| स्वभावतः उसके पास उसका शरीर है जो उसकी माता के शरीर से उत्पन्न होता है अतएव अपनी माता के शरीर से उसका घनिष्ट संबंध होता हैं| बालक अन्य किसी स्त्री को नही चाहेगा|बालक रोत है किन्तु जब वह स्त्री ,जो बालक की माँ होती है,आती है और उसे गोद में उठा लेती है तो वह बालक शांत हो जाता है| यह सब व्यक्त करने के लिए उसके पास कोई भाषा नही होती किन्तु उसकी माता से उसका संबंध प्रकृति का नियम है| इसी तरह हम स्वाभिक रूप से शरीर की रक्षा करना चाहते है|यह आत्म-संरक्षण हैं| यह जीव का प्राकृतिक नियम है और सोना भी प्राकृतिक नियम है|तो मैं शरीर की रक्षा क्यों करु? क्योकि इस शरीर के भीतर आत्मा है|
जारी...
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Sunday, 8 May 2016

सर्वाधिक प्रिय पुरुष (द्वितीय भाग)

प्रथम भाग का शेष......

यद्यपि मनुष्य का स्वरूप क्षणिक है, फिर भी इस मनुष्य रूप मे आप जीवन की सर्वोच्च सिद्धि प्राप्त कर सकते हैं|वह सिद्धि क्या है? सर्वव्यापक भगवान को जान लेना| अन्य योनियों में यह संभव नही है |चूँकि हम क्रमिक विकास द्वारा यह मनुध्य रूप प्राप्त करते है इसलिए यह दुर्लभ अवसर है | प्रकृति के नियमानुसार आपको अनन्तः मनुष्य शरीर दिया जाता है जिससे आप आध्यात्मिक जीवन को प्राप्त करके भगवद्धाम वापस ज सकें|
जीवन का चरम लक्ष्य पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् विष्णु या कृष्ण हैं | बाद मैं एक श्लोक में प्रह्लाद महाराज कहते हैं, "इस भौतिक जगत् के जो लोग भौतिक शक्ति द्वारा मोहित हो जाते है,वे यह नही जानते की मनुष्य-जीवन का लक्ष्य क्या है? क्यों? क्योकि वे भगवान् की चकाचोंध करने वाली बहिरंगा शक्ति द्वारा मोहित हो चुके हैं| वे भूल चुके हैं कि जीवन तो सिद्धि के चरम लक्ष्य भगवान् विष्णु को समझने के लिए एक सुअवसर है|" विष्णु या ईश्वर को समझने के लिए हमें क्यों अतीव उत्सुक होना चाहिए? प्रह्लाद महाराज कारण समझाते है,"विष्णु सर्वाधिक प्रिय व्यक्ति हैं|हम यह भूल चुके हैं|" हम सब किसी प्रिय मित्र की खोज मैं रहते है- हर व्यक्ति इस प्रकार की खोज करता है|"पुरुष स्त्री के साथ प्रिय मैत्री करना चाहता है और स्त्री पुरुष के साथ मैत्री करना चाहती है| या फिर एक पुरुष अन्य पुरुष को खोजता है और एक स्त्री अन्य स्त्री को खोजती है| हर व्यक्ति किसी न किसी प्रिय,मधुर मित्र की तलाश मे रहता है | ऐसा क्यों? क्योकि हम ऐसे प्रिय मित्र का सहयोग चाहते हैं जो हमारी सहायता कर सके | यह जीवन संघर्ष का अंग है और यह स्वाभाविक है| किन्तु हम यह नही जानते कि हमारे सर्वाधिक प्रिय  मित्र पूर्ण पुरषोतम भगवान् विष्णु हैं|
जिन्होंने भगवदगीता का अध्ययन किया है,उन्हें पांचवे अध्याय में यह उत्तम श्लोक मिला होगा ,"यदि आप शांति चाहते हैं,तो आपको स्पष्ट रूप से यह समझना होगा कि इस लोक की तथा अन्य लोको की हर वस्तु कृष्ण संपत्ति है,वे ही हर वस्तु के भोक्ता हैं एवं वे ही हर एक के परम मित्र हैं| तो फिर तपस्या क्यों की जाये ? ये सारे कार्य भगवान् को प्रसन्न करने के अतिरिक्त और किसी निमिन्त नही है | और जब भगवान् प्रसन्न होते हैं तो आपको फल मिलता है| आप चाहे उच्चतर भौतिक सुख की कामना करते हो य आध्यात्मिक सुख की; आप चाहे इस लोक  में श्रेष्ठतर जीवन बिताना चाहते हों या अन्य लोको में -यदि आप भगवान् को प्रसन्न कर लेते हैं तो आप उनसे मनवांछित फल प्राप्त कर सकेंगे | इसलिए वे अत्यंत निष्ठावान मित्र हैं| किन्तु बुद्धिमान व्यक्ति ऐसी कोई वस्तु नही चाहता जो भौतिक रूप से कुलषित हो|
जारी...........
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Tuesday, 3 May 2016

सर्वाधिक प्रिय पुरुष (प्रथम भाग)

आज मैं आपलोगों को एक बालक भक्त की कथा सुनाऊँगा जिनका नाम प्रह्लाद महाराज था! वे घोर नास्तिक परिवार मे जन्मे थे!
इस संसार मे दो प्रकार के मनुष्य है - असुर तथा देवता!उनमे अंतर क्या है? मुख्य अंतर यह है कि देवतागण भगवान के प्रति अनुरक्त रहते है जबकि असुरगण नास्तिक होते है ! वे ईश्वर मे इसलिये विश्वास नही करते, क्योंकि वे भौतिकवादी होते हैं ! मनुष्यो की ये दोनो श्रेणियां इस संसार मे सदैव विद्यमान रहती हैं |
कलियुग (कलह का युग) होने से सम्प्रति असुरो की संख्या बढ़ी हुई है किन्तु यह वर्गीकरण  सृष्टी के प्राराम्भ से चला आ रहा है। आपलोगो से मैं जिस घटना का वर्णन करने ज रहा हूँ वह सृष्टी के कुछ लाख वर्षो बाद घटी ।

प्रहलाद महाराज सर्वाधिक नास्तिक एवं भौतिक रूप से सर्वाधिक  शक्तिशाली व्यक्ति के पुत्र थे । चूँकि उस समय का समाज भौतिकवादी था अतैव इस बालक का भगवान के यशोगान का अवसर ही नही मिलता था । महात्मा का लक्षण् यह होता है की भगवान की महिमा का प्रसार करने के लिए अत्यधिक उत्सुक रहता था ।

जब प्रह्लाद महाराज पाँच वर्ष के बालक थे ,  तो उन्हें पाठशाला भेजा  गया  । जैसे ही मनोरंजन का अंतराल आता और शिक्षक बाहर चला जाता वे अपने मित्रो से कहते मित्रो!आओ। हम कृष्णभावनामृत  के विषय  मे चर्चा करे ।"

यह दृश्य श्रीमदभगवतं क्व सप्तम स्कंध के छठे अध्याय मे वर्णित है ।भक्त प्रह्लाद कहते है , "मित्रो !
यह बाल्यावस्था ही कृषण्भावनामृत अनुशीलन करने का उचित समय है  ।"और उनके बालमित्र उत्तर देते है ,
" ओह ! हम तो खेलेंगे | हम कृष्ण -भावनामृत क्यों ग्रहण करे?" प्रतिउत्तर मे प्रह्लाद महाराज कहते है, "यदि तुम लोग बुद्धिमान हो, तो बाल्यावस्था से ही भागवत धर्म प्रारम्भ करो |"

श्रीमदभगवतं भागवत-धर्म प्रस्तुत करता है अर्थात यह ईश्वर विषयक वैज्ञानिक ज्ञान तक ले जाता है | भागवत का अर्थ है, "पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्" और धर्म का अर्थ है, "विधि-विधान |" यह मानव जीवन अति दुर्लभ है | यह एक महान सुयोग है | इसलिए प्रह्लाद कहते हैं "मित्रो ! तुम लोग सभ्य मनुष्यों के रूप मे उत्पन्न हुए हो, अतः तुम्हारा ये मनुष्य शरीर क्षणभंगुर होते हुए भी महानतम सुयोग है |" कोई भी व्यक्ति अपनी जीवन अवधि नही जानता | ऐसी गणना की जाती है कि इस युग मे मनुष्य-शरीर पाँच सौ वर्षो तक जीवित रह सकता है | किन्तु जैसे जैसे कलयुग आगे बढ़ता जाता है, जीवन की अवधि,स्मृति,दया,धार्मिकता तथा अन्य ऐसी ही विभूतियाँ घटती जाती है | अतएव इस युग मे दीर्घायु अनिश्चित है |
जारी...............
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Tuesday, 26 April 2016

BHARTIYA SANSKRITI (भारतीय संस्कृति) by prakash chand thapliyal

भारतीय संस्कृति

कभी कभी मेरे अंग्रेज और अन्य अभारतीय मित्र मेरे से कई तरह के सवाल पूछते है, जैसे हमारी संस्कृति कैसी है, हमारे इतने सारे देवी देवता क्यों है, अगर हम सभी एक जैसे है तो हमारे यहाँ विभिन्न प्रकार की जातिया प्रजातिया क्यों है? वर्ण सिस्टम का क्या महत्व है? और हमारे हर त्योहारों के साथ कोई ना कोई कथा क्यो जुड़ी हुई है? भारत मे इतनी भाषाओ के बावजूद कौन सी चीज लोगो को जोड़े रखती है? जब आप लोग अपने को एक मानते हो तो फिर दंगे फसाद क्यो होते है, आपके धर्म और संस्कृति मे इतने विरोधाभास क्यों है? वगैरहा वगैरहा….. मैने उन्हे समझाने की कुछ कोशिश की है, आइये आप भी देखिये कि मै इसमे कितना सफल हो सका हूँ.

किसी भी देश का अपना इतिहास होता है, परम्परा होती है. यदि हम देश को शरीर माने तो, संस्कृति उसकी आत्मा होती है, या शरीर मे दौड़ने वाला रक्त होता है या फिर सांस…..जो शरीर को चलाने के लिये अतिआवश्यक है. किसी भी संस्कृति में अनेक आदर्श रहते हैं, आदर्श मूल्य है, और मूल्यों का मुख्य संवाहक संस्कृति होती है. भारतीय संस्कृति में मुख्य रूप से चार मूल्यों की प्रधानता दी गयी है – धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष लेकिन कोई भी व्यक्ति इन चारों पुरुषार्थों अथवा मूल्यो को एक ही काल में एक ही साथ चरितार्थ नहीं कर सकता है, क्योंकि व्यक्ति का जीवन सीमित होता है, इसलिए हिन्दू धर्म में वर्णाश्रम व्यवस्था एवं पुनर्जन्म पर बल दिया गया है. वर्णाश्रम व्यवस्था को यदि गुण और कर्म पर आधारित माने तो यह व्यवस्था आज भी अत्यन्त वैज्ञानिक एवं उपादेय प्रतीत होती है. अगर देखा जाय तो यह वर्णाश्रम धर्म ही है इसकी बदौलत ऊँचे से ऊँचे ब्राह्मण पैदा हुए, ब्राह्मणों ने तो अपने लिए धर्म का काम लिया दान देना लेना, विद्या पढ़ना पढ़ाना, क्षत्रियों का कर्तव्य था कि जहाँ जरूरत पड़े वहाँ जान दे लेकिन मान को न जाने दें. वैश्य का कर्तव्य था कि वेद – वेदांग पढ़े और व्यापार करता रहे और शुद्रो को कर्तव्य था कि अन्य सभी कामो को अन्जाम देना. जब शुद्रों को वेद पढ़ने का अधिकार नहीं था तब वेदव्यासजी ने चारों वेदों का अर्थ महाभारत में भर दिया ताकि सब प्राणी लाभ उठा सकें. 

यह हिन्दू संस्कृति की समानता का एक प्रतीक है.
भारत पर विदेशियो ने अनेक बार आक्रमण किया और हिन्दु संस्कृति को नष्ट करने की कोशिश की,लेकिन वो संस्कृति ही क्या जो मिट जाये, भारत आये अनेक आक्रमणकारियो ने भी माना कि इस देश की संस्कृति को नष्ट करना नामुमकिन है, बल्कि उनमे से कई लोग अपने साथ विभिन्न प्रकार के धर्म और सम्प्रदाय ले आये, और कई यहीं पर बस गये, जिससे गंगा जमुनी संस्कृति का जन्म हुआ,जिसे भारतीय संस्कृति ने बड़ी ही सहनशीलता के साथ स्वीकारा और गले लगाया. विभिन्न वेद शास्त्र हमारी संस्कृति का हिस्सा है, इसके अतिरिक्त भारत की अन्य परम्परायें जैसे अतिथि देवो भवः, सामाजिक आचार व्यवहार,शरणागत रक्षा,सर्वधर्म समभाव,वसुधैव कुटुम्बकम,अनेकता मे एकता जैसी प्रमुख है.
prakash chand thapliyal with a bhagwa flag.

पुराने जमाने से ही हमे समझाया गया है कि घर आया अतिथि भगवान के समान है, हम खुद भले ही भूखे रह जाये,लेकिन अतिथि का पेट भरना जरूरी है.इसी तरह से हमे समाज मे कैसा व्यवहार एवं आचरण करना चाहिये,इसकी शिक्षा हमारी संस्कृति हमे देती है, विभिन्न कहानियो एव लोकोत्तियो के द्वारा, हमे बड़ो की इज्जत करनी चाहिये और छोटो के प्रति स्नेह का आचरण करना चाहिये, एवम महिलाओ और बुजुर्गो के प्रति विशेष सम्मान दिखाना चाहिये.इसके अतिरिक्त शरण मे आये व्यक्ति की रक्षा करना हमारा परम धर्म है.

भारत ही केवल एक ऐसा देश है जहाँ सर्वधर्म समभाव का पूरा पूरा ध्यान रखा गया है, जितनी इज्जत हम अपने धर्म की करते है, उतनी ही इज्जत हमे दूसरो के धर्म की करनी चाहिये.यहाँ सुबह सुबह मंदिर से मन्त्रोचार की ध्वनि,मस्जिद से अजान,गुरूद्वारे से शबद कीर्तन की आवाज और चर्च से प्रार्थना की पुकार एक साथ सुनी जा सकती है.जितनी भाषाये यहाँ बोली जाती है, विश्व मे कहीं और नही बोली जाती.बोल-चाल,खान-पान,रहन-सहन मे अनेकता होते हुए भी हम एक साथ रहते है, एक दूसरे के तीज त्योहार मे शिरकत करते है, होली,दीवाली,ईद,बाराबफात, मुहर्रम,गुरपर्ब और क्रिसमस साथ साथ मनायी जाती है. मजारो ‌और मकबरो पर हिन्दूओ द्वारा चादर चढाना, और दूसरे सम्प्रदाय के लोगो का मंदिरो और गुरद्वारो पर दर्शन करना,मत्था टेकना बहुत आम बात है. यह हमारे धर्म और लोकाचार की सहनशीलता का जीता जागता उदाहरण है.

रही बात हमारे विभिन्न प्रकार के देवी देवता होने की…तो हिन्दू धर्म मे प्रकृति को हर तरह से पूजा गया है, चाहे वह वायू,जल,पृथ्वी, अग्नि या आकाश हो. इस प्रकार से हम प्रकृति के हर रूप की पूजा करते है, चाहे वह पहाड़ हो या कोई जीव जन्तु या हमारी वन्य सम्प्रदा, हमारी संस्कृति मे इन सबको विशेष स्थान दिया गया है.दुनिया मे ऐसी कोई संस्कृति नही होगी जहाँ प्रकृति को विभिन्न रूपो और स्वरूपो में पूजा गया है, रही बात त्योहारो से जुड़ी कहानियो की तो, सामान्य जनता जो उपनिषदो और वेदो की लिखी गूढ बातो को नही समझ सकती, उनके लोक आचरण के लिये विभिन्न ऋषि मुनियो ने अनेक गाथाये लिखी और उनको विभिन्न त्योहारो से इस तरह से जोड़ा कि सामान्य जन भी उसके साथ जुड़ सके और उसे अपना सके साथ ही ईश्वर का ध्यान और मनन कर सके.

इसके अतिरिक्त और भी चीजे हमारी संस्कृति मे जुड़ती रही, सारो का उल्लेख करना तो सम्भव नही हो सकेगा.. प्रमुख रूप से क्रिकेट की संस्कृति है, यह खेल अब हमारी संस्कृति मे शामिल हो गया है, क्रिकेटरो के अच्छे बुरे प्रदर्शन पर हमे हंसते रोते है, इनको अपने बच्चो से भी ज्यादा प्यार करते है, भगवान जैसी पूजा करते है, जब जीतते है तो तालिया बचाते है, जब हारते है तो गालिया देते है.

अब समस्या यहाँ आती है कि हम अपनी संस्कृति का कितना मान रख पाते है, वेद शास्त्र आपको रास्ता दिखा सकते है, लेकिन आपको उनपर चलने के लिये बाध्य नही कर सकते….एक और बात चूंकि ये सारे शास्त्र गूढ भाषा मे लिखे गये थे, इसलिये समय समय पर अनेक स्वार्थी धर्माचार्यो ने अपने और कुछ राजनीतिज्ञो के निहित स्वार्थो के लिये, इन शास्त्रो का मनमाने ढंग से विवेचना की और अपने फायदे के लिये इस्तेमाल किया. और अपनी दुकाने चलायी …भाई को भाई से लड़ाया और विभिन्न समुदायो मे आपस मे बैर और नफरत फैलायी……और जो आज तक जारी है.इन्ही लोगो की वजह से हमारे यहाँ कभी कभी दंगे फसाद होते है, लेकिन आपसी भाईचारा कभी खत्म नही होता.

मार्क ट्वेन ने १८५६ मे जब भारत का दौरा किया था तो उसने लिखा था, भारत सांस्कृतिक रूप से परिपूर्ण राष्ट्र है. वैसे भी समय समय पर कई विदेशी विद्वानो ने भारत का दौरा किया और यहाँ की संस्कृति को दूनिया मे सबसे उन्नत माना.यही हमारी संस्कृति है, और हम सभी भारतीयो को इस पर गर्व है.

Friday, 8 April 2016

Brahm gyan ( ब्रह्म ज्ञान ) by prakash chand thapliyal

Brahm gyan (ब्रह्म ज्ञान)

"A lot has been said and written by spiritual gurus and religiously inclined persons on how to attain the ultimate goal of self-realisation and holistic well-being. Despite advancement, both technological and economic, we are still groping to achieve peace, tranquility, universal brotherhood and tolerance.

प्रकृति और पुरुष का मिलन ही ब्रहमसत्य है
Description of brahm satya by prakash chand thapliyal








1. परमसत्य का ज्ञान ही ब्रह्म ज्ञान है!

2. आत्मा और परमात्मा का मिलन ही ब्रह्मज्ञान है!

3. पंचतत्व का ज्ञान (तत्वज्ञान) का बोध ही ब्रह्म ज्ञान है!

4. योग के आठो चरण (यम, नियम, आसन ,प्राणयाम,प्रत्याहार,धारणा,ध्यान,समाधि) की चरम सीमा ही ब्रह्मज्ञान है!

5. जीवन और मृत्यु से विरक्त होना ही ब्रह्मज्ञान है!

6.प्रकृति और पुरुष का मिलन ही ब्रह्मज्ञान है!

When a seeker of truth receives brahm gyan, he or she instantly experience divine light within. Divine knowledge comprises instant and immediate practical experience of divine light, the holy name, inner music and holy nectar. God has been described as the divine light by holy scriptures like the Vedas, Shastras, the Upanishads and the puranas. As there is fire hidden in wood and it can be produced only through a technique, there is divine light hidden in every particle. A perfect master can show us that divine light within us. Our scriptures profusely emphasise that our bhakti starts only after we see and experience that divine light within us. The simran or smaran or remembrance of that eternal name which is already present in our inner-self can be done with neither tongue not with the lips. That holy name is inexpressible and hence beyond any language. The simran of this holy name makes us pure, take us on the path of true bhakti and salvation. Divine music or the anhad vani echoes in our inner-self and awakens feelings of forgiveness, morality, satisfaction, compassion and truth within us and through constant practice, we attain eternal peace and pleasure. Amrit or holy nectar is present in plenty in the human body. Amrit keeps the child alive in the womb of his mother. On taking birth, the child cries as he gets detached from God.

The role of the perfect master is to link us with the inner world which has been forgotten by us. Attainment of supreme knowledge is the right of every human being, whosoever he or she may be. It is only after we see divine light within our inner-self that self-transformation and holistic well-being shall become reality."

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Monday, 21 March 2016

KAMAKHYA MYSTERY UNLOCKED ( कामाख्या का रहस्य ) BY PRAKASH CHAND THAPLIYAL

नाम: कामाख्या मंदिर, गुवाहाटी


निर्माता: चिलाराय
निर्माण काल :
देवता: कामाख्या देवी
वास्तुकला:
स्थान: नीलांचल पर्वत, निकट गुवाहाटी, असम


कामाख्या मंदिर असम की राजधानी दिसपुर के पास गुवाहाटी से ८ किलोमीटर दूर कामाख्या मे है। कामाख्या से भी १० किलोमीटर दूर नीलाचल पव॑त पर स्थित हॅ। यह मंदिर शक्ति की देवी सती का मंदिर है। यह मंदिर एक पहाड़ी पर बना है व इसका महत् तांत्रिक महत्व है। प्राचीन काल से सतयुगीन तीर्थ कामाख्या वर्तमान में तंत्र सिद्धि का सर्वोच्च स्थल है। पूर्वोत्तर के मुख्य द्वार कहे जाने वाले असम राज्य की राजधानी दिसपुर से 6 किलोमीटर की दूरी पर स्थित नीलांचल अथवा नीलशैल पर्वतमालाओं पर स्थित मां भगवती कामाख्या का सिद्ध शक्तिपीठ सती के इक्यावन शक्तिपीठों में सर्वोच्च स्थान रखता है। यहीं भगवती की महामुद्रा (योनि-कुण्ड) स्थित है।


तंत्र-मंत्र साधना के लिए विख्यात कामरूप कामाख्या (गुवाहाटी) में शक्ति की देवी कामाख्या के मंदिर में प्रतिवर्ष होने वाले 'अंबुवासी' मेले को कामरूप का कुंभ माना जा सकता है। इसमें भाग लेने के लिए देशभर के साधुओं और तांत्रिकों का जुटना आरंभ हो गया है।


वैसे तो इस वर्ष अंबुवासी मेला 22 से 25 जून तक चलेगा, लेकिन एक सप्ताह पहले से ही तांत्रिकों और साधु-संन्यासियों व साधकों का आगमन आरंभ हो गया है। शक्ति के ये साधक नीलाचल पहाड़ (जिस पर माँ कामाख्या का मंदिर स्थित है) की विभिन्न गुफाओं में बैठकर साधना करते हैं। अंबुवासी मेले के दौरान अजीबो-गरीब हठयोगी पहुँचते हैं।

कोई अपनी दस-बारह फुट लंबी जटाओं के कारण कौतूहल का कारण बना रहता है, कोई पानी में बैठकर साधना करता है तो कोई एक पैर पर खड़े होकर। इन चार दिनों में चार से पाँच लाख श्रद्धालु वहाँ पहुँचते हैं। इतना बड़ा धार्मिक जमावड़ा पूर्वोत्तर में और कहीं नहीं लगता है।

ऐसी मान्यता है कि 'अंबुवासी मेले' के दौरान माँ कामाख्या रजस्वला होती हैं। ज्योतिषशास्त्र के अनुसार सौर आषाढ़ माह के मृगशिरा नक्षत्र के तृतीय चरण बीत जाने पर चतुर्थ चरण में आद्रा पाद के मध्य में पृथ्वी ऋतुवती होती है। यह मान्यता है कि भगवान विष्णु के चक्र से खंड-खंड हुई सती की योनि नीलाचल पहाड़ पर गिरी थी।

इक्यावन शक्तिपीठों में कामाख्या महापीठ को सर्वश्रेष्ठ माना गया है। इसलिए कामाख्या मंदिर में माँ की योनि की पूजा होती है। यही वजह है कि कामाख्या मंदिर के गर्भगृह के फोटो लेने पर पाबंदी है इसलिए तीन दिनों तक मंदिर में प्रवेश करने की मनाही होती है। चौथे दिन मंदिर का पट खुलता है और विशेष पूजा के बाद भक्तों को दर्शन का मौका मिलता है।

वैसे भी कामाख्या मंदिर अपनी भौगोलिक विशेषताओं के कारण बेहतर पर्यटन स्थल है और सालभर लोगों का आना-जाना लगा रहता है। यह पहाड़ ब्रह्मपुत्र नदी से बिलकुल सटा है। कामाख्या देवत्तर बोर्ड के प्रशासनिक अधिकारी ऋजु शर्मा के अनुसार, इतने सारे लोगों के आने से व्यवस्था संभालनी कठिन हो जाती है। जिला प्रशासन की मदद ली जाती है। उस दौरान निजी वाहनों के प्रवेश पर रोक लगा दी जाती है।


मेले को असम की कृषि व्यवस्था से भी जोड़कर देखा जाता है। किसान पृथ्वी के ऋतुवती होने के बाद ही धान की खेती आरंभ करते हैं।

पुराणों के अनुसार पिता दक्ष के यज्ञ में पति शिव का अपमान होने के कारण सती हवनकुंड में ही कूद पड़ी थीं जिसके शरीर को शिव कंधे पर दीर्घकाल तक डाले फिरते रहे। सती के अंग जहाँ-जहाँ गिरे वहाँ-वहाँ शक्तिपीठ बन गए जो शाक्त तथा शैव भक्तों के परम तीर्थ हुए। इन्हीं पीठों में से एक—कामरूप असम में स्थापित हुआ, जो आज की गौहाटी के सामने 'कामाख्या' नामक पहाड़ी पर स्थित है।

पश्चिमी भारत में जो कामारूप की नारी शक्ति के अनेक अलौकिक चमत्कारों की बात लोकसाहित्य में कही गई है, उसका आधार इस कामाक्षी का महत्व ही है। 'कामरूप' का अर्थ ही है 'इच्छानुसार रूप धारण कर लेना' और विश्वास है कि असम की नारियाँ चाहे जिसको अपनी इच्छा के अनुकूल रूप में बदल देती थीं।
असम के पूर्वी भाग में अत्यंत प्राचीन काल से नारी की शक्ति की अर्चना हुई है। 

महाभारत में उस दिशा के स्त्रीराज्य का उल्लेख हुआ है। इसमें संदेह नहीं कि मातृसत्तात्मक परंपरा का कोई न कोई रूप वहाँ था जो वहाँ की नागा आदि जातियों में आज भी बना है। ऐसे वातावरण में देवी का महत्व चिरस्थायी होना स्वाभाविक ही था और जब उसे शिव की पत्नी मान लिया गया तब शक्ति संप्रदाय को सहज ही शैव शक्ति की पृष्ठभूमि और मर्यादा प्राप्त हो गई। फिर जब वज्रयानी प्रज्ञापारमिता और शक्ति एक कर दी गईं तब तो शक्ति गौरव का और भी प्रसार हो गया। उस शक्ति विश्वास का केंद्र गोहाटी की कामाख्या पहाड़ी का यह कामाक्षी पीठ है।
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Saturday, 19 March 2016

SHREE RAM STUTI WITH MEANING ( श्री राम स्तुति ) BY PRAKASH CHAND THAPLIYAL


श्रीरामचंद्र कृपालु भजु मन हरण भवभय दारुणं ।
नवकंज लोचन, कंजमुख कर, कंज पद कंजारुणं ॥१॥
व्याख्या- हे मन! कृपालु श्रीरामचंद्रजी का भजन कर. वे संसार के जन्म-मरण रूप दारुण भय को दूर करने वाले है. उनके नेत्र नव-विकसित कमल के समान है. मुख-हाथ और चरण भी लालकमल के सदृश हैं ॥१॥


कंदर्प अगणित अमित छवि नव नील नीरद सुन्दरम ।
पट पीत मानहु तडित रूचि-शुची नौमी, जनक सुतावरं ॥२॥
व्याख्या-उनके सौंदर्य की छ्टा अगणित कामदेवो से बढ्कर है. उनके शरीर का नवीन नील-सजल मेघ के जैसा सुंदर वर्ण है. पीताम्बर मेघरूप शरीर मे मानो बिजली के समान चमक रहा है. ऐसे पावनरूप जानकीपति श्रीरामजी को मै नमस्कार करता हू ॥२॥


भजु दीनबंधु दिनेश दानव दैत्य वंश निकन्दनं ।
 रघुनंद आनंद कंद कोशल चन्द्र दशरथ नंदनम ॥३॥
व्याख्या-हे मन! दीनो के बंधू, सुर्य के समान तेजस्वी , दानव और दैत्यो के वंश का समूल नाश करने वाले,आनन्दकंद, कोशल-देशरूपी आकाश मे निर्मल चंद्र्मा के समान, दशरथनंदन श्रीराम का भजन कर ॥३॥


सिर मुकुट कुंडल तिलक चारू उदारु अंग विभुषणं ।
 आजानुभुज शर चाप-धर, संग्राम-जित-खर दूषणं ॥४॥
व्याख्या- जिनके मस्तक पर रत्नजडित मुकुट, कानो मे कुण्डल, भाल पर तिलक और प्रत्येक अंग मे सुंदर आभूषण सुशोभित हो रहे है. जिनकी भुजाए घुटनो तक लम्बी है. जो धनुष-बाण लिये हुए है. जिन्होने संग्राम मे खर-दूषण को जीत लिया है ॥४॥


इति वदति तुलसीदास, शंकर शेष मुनि-मन-रंजनं ।
मम ह्रदय कंज निवास कुरु, कामादि खल-दल-गंजनं ॥५॥
व्याख्या- जो शिव, शेष और मुनियो के मन को प्रसन्न करने वाले और काम,क्रोध,लोभादि शत्रुओ का नाश करने वाले है. तुलसीदास प्रार्थना करते है कि वे श्रीरघुनाथजी मेरे ह्रदय कमल मे सदा निवास करे ॥५॥


मनु जाहि राचेउ मिलिहि सो बरु सहज सुंदर सावरो |
करुना निधान सुजान सीलु सनेहु जानत रावरो ॥६॥
व्याख्या-जिसमे तुम्हारा मन अनुरक्त हो गया है, वही स्वभाव से ही सुंदर सावला वर (श्रीरामचंद्रजी) तुमको मिलेगा. वह दया का खजाना और सुजान (सर्वग्य) है. तुम्हारे शील और स्नेह को जानता है ॥६॥


एही भांति गौरी असीस सुनी सिय सहित हिय हरषीं अली ।
तुलसी भावानिः पूजी पुनि-पुनि मुदित मन मंदिर चली ॥७॥
व्याख्या- इस प्रकार श्रीगौरीजी का आशीर्वाद सुनकर जानकीजी समेत सभी सखिया ह्रदय मे हर्सित हुई. तुलसीदासजी कहते है-भवानीजी को बार-बार पूजकर सीताजी प्रसन्न मन से राजमहल को लौट चली ॥७॥


जानी गौरी अनुकूल, सिय हिय हरषु न जाइ कहि ।
मंजुल मंगल मूल बाम अंग फरकन लगे ॥८॥
व्याख्या-गौरीजी को अनुकूल जानकर सीताजी के ह्रदय मे जो हरष हुआ वह कहा नही जा सकता. सुंदर मंगलो के मूल उनके बाये अंग फडकने लगे ॥८॥
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Posted by PRAKASH CHAND THAPLIYAL

SOCIETY CONDITION ( BY PRAKASH CHAND THAPLIYAL )

जहां तक नज़र डालता हूँ, सभी व्यापारी नज़र आते है
किसी ने पूछा अरे भाई क्या ढूंढ रहे हो !
मैंने कहा एक सच्चा देशभक्त ढूंढ रहा हूँ ,
जिसका मान ईमान और स्वाभिमान बिका ना हो .......
████████████████████████
दिल बिक गया , धडकन बिक गयी ,
बेचने वालो ने तो हवा और पानी भी डिब्बों मे पैक कर के बेच दिए!
आँखे बिक गयी , रोशनी भी बिक गयी ,
व्यापारियो ने तो इंसान की कीमत भी आकी है...
सब कुछ तो बिक गया, इंसानियत बिकना बाकी है!!
████████████████████████
समाज बिक गया , संत बिक गए,
बेचने वालो ने तो मजहब के नाम पर फिल्में भी बेच डाली!
मंदिर बिक गए , तीर्थ बिक गए,
व्यापारियो ने तो धर्म की कीमत भी आकी है...
सब कुछ तो बिक गया , भगवान बिकना बाकी है!!
████████████████████████
गाँव बिक गए , शहर बिक गए,
बेचने वाले तो कोयला भी बेच कर खा गए!
राज्य बिक गया , सीमाएं बिक गयी,
व्यापारियो ने तो देश की कीमत भी आकी है...
सब कुछ तो बिक गया , देशभक्ति बिकना बाकी है!!

अगर कुछ कर गुजरने की ललक है तुम्हारे सीने मे,
क्या मजा है , इस कदर अपने लिए यू जीने मे!
होंगे कुछ लोग जिन्होंने जीने के लिए मारना सीखा होगा ,
हमने तो बचपन से ही मरने के लिए जीना सीखा!
नाम तुम्हारा न केवल परिवार मे सिमटा हो,
वीरता तो उसमे है , कफन जिसका तिरंगे मे लिपटा हो!!

छोटी सी गुजारिश है, इतनी सी खबर कर दो,
एक बार जो लिख दू तो , मेरा लेख अमर कर दो!
घर घर तक मैं पहुँचू , उद्देश्य सफल कर दो,
फिर से निवेदन है , थोड़ी सी खबर कर दो!
साँसे कभी थम जाये दिलो मे अमर कर दो .....
आप सभी देशभक्तो से निवेदन है ज्यादा से ज्यादा संख्या मे हमसे जुड़े ............
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POSTED BY PRAKASH CHAND THAPLIYAL

Tuesday, 15 March 2016

A patriotic poem (by prakash chand thapliyal)

ऐ जिंदगी ,

मुझे मेरे इस निष्क्रिय जीवन की सजा दे !
मुझे मेरी मौत से मिला दे !!

अपनी कद काठी का गुरूर, था मेरे मन मे छाया !
जो देश के काम न आ सकी, किस काम की थी वो काया !!

हंसता रहा मजबूर पर ,दिया न कभी किसी को सहारा !
सारी दुनिया से जीत गया ,पर खुद से था मैं हारा !!

दौलत के दम पर खरीदा था प्यार, जब उबल रही थी जवानी !
माँ बाप के संस्कारो की,मै देता गया कुर्बानी !!

प्यार तो वो था ही नही,नोटों की थी वो माया!
धन खत्म जब हो गया,एक पल भी नही टिक पाया!!

आगे रास्ता खत्म था ,पीछे छूट गयी थी एक संकरी गली!
कोई साथ न खड़ा था मेरे,सिर्फ थे बजरंग बली!!

पाकर आशीष उनका ,धयान पवनसुत की भक्ति मे लगा दिया!
शेष बचा सरा जीवन,मात् पित् और देशभक्ति मे लगा दिया!!

समर्पित है ये जीवन देशभक्ति मे,लेना तुम दुनिया वालो देख!
करूँगा जब मै अपने रक्त से,तिरंगे का अभिषेक!!

अगर कुछ कर गुजरने की ललक, है तुम्हारे सीने मे!
क्या मजा है इस कदर,अपने लिए यू जीने मे!!

नाम न तुम्हारा केवल, परिवार मे ही सिमटा हो!
वीरता तो उसमे है, कफन जिसका तिरंगे मे लिपटा हो!!

देना मेरे देश की शरहद पे , रेखा एक तुम खींच !
खून से अपने मै,दूँगा उस शरहद को सींच !!

अगर कभी देश की सेवा ,करते हुए मै मर भी जाउ!
प्राण न्यौछावर कर देश पे,गर्व से मैं भी शहीद कहलाऊँ!!

अगर मौत मिले किसी मोड़ पर तो एक ही गुजारिश करु.........
ऐ मौत,
मुझे मेरी जिंदगी से मिला दे!
अपने देश की सेवा करने का ,एक मौका और दिला दे!!

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Posted by prakash chand thapliyal

Message on behalf of terrorism by prakash chand thapliyal

कौन कहता है कि आतंकवाद का कोई धर्म नही होता......

वाह रे खुदा,तेरी इस जेहादी खुदाई को मेरा सलाम !
आतंकवाद के धर्म ,इस्लाम को मेरा सलाम !!

तेरी जन्नत की राह पे चलता हुआ,वो अपना सब कुर्बान कर गया !
किस मिट्टी का बना था वो दिल,जो मासूमो पे गोली चलाते वक्त भी अल्लाह हुअकबर कह गया !!

वाह रे खुदा के नेक बंदे...
मजहब के नाम पे जो तुमने नरसंहार किया,उस समय प्रकृति भी हुई थी दंडित !
सब कुछ जो सह गया ,उसका नाम था कश्मीरी पंडित !!

मदरसो मे कुरान की आयाते पढ़ाकर ,यही सीख उन्हें सिखलाई थी !
मजहब पूछकर फिर उन्होंनो ,मासूमो पे गोलिया चलाई थी !!

जो बीत गया वो याद है, दुःख से भरी वो कहानी है !
आज जो हिन्दू चुप रहा,उसकी रगो मे पानी है !!

आओ सारे हिन्दुओ मिलकर एक हो जाओ, अब केसरिया परचम लहराना है !
हर शिला पे राष्ट्र की,राम नाम लिखवाना है !!

मैं सारे रामभक्त हिन्दू भाइयो और बहनो का आवाहन करता हूँ आओ मिलकर एक हो जाओ......

जब परिवार पे कोई आँच आती है तो सारे घरवाले मिलकर मुसीबत का सामना करते है!
ठीक उसी प्रकार आज देश पे आतंकवाद का साया है आओ मिलकर इसे देश से बाहर उखाड़ फेके.....
आतंकवाद का सिर्फ एक ही हल ....
हिन्दुराष्ट्र
हिन्दुराष्ट्र 
हिन्दुराष्ट्र
जय श्री राम ....
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Posted by prakash chand thapliyal

Saturday, 12 March 2016

Shiv tandav stotram (शिव तांडव स्तोत्रम्) by prakash chand thapliyal

शिव तांडव स्तोत्रम्

||श्रीगणेशाय नमः ||

जटा टवी गलज्जल प्रवाह पावितस्थले, गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजङ्ग तुङ्ग मालिकाम् |
डमड्डमड्डमड्डमन्निनाद वड्डमर्वयं, चकार चण्डताण्डवं तनोतु नः शिवः शिवम् ||१||

जटा कटा हसंभ्रम भ्रमन्निलिम्प निर्झरी, विलो लवी चिवल्लरी विराजमान मूर्धनि |
धगद् धगद् धगज्ज्वलल् ललाट पट्ट पावके किशोर चन्द्र शेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम ||२||

धरा धरेन्द्र नंदिनी विलास बन्धु बन्धुरस् फुरद् दिगन्त सन्तति प्रमोद मानमानसे |
कृपा कटाक्ष धोरणी निरुद्ध दुर्धरापदि क्वचिद् दिगम्बरे मनो विनोदमेतु वस्तुनि ||३||

लता भुजङ्ग पिङ्गलस् फुरत्फणा मणिप्रभा कदम्ब कुङ्कुमद्रवप् रलिप्तदिग्व धूमुखे |
मदान्ध सिन्धुरस् फुरत् त्वगुत्तरीयमे दुरे मनो विनोद मद्भुतं बिभर्तु भूतभर्तरि ||४||

सहस्र लोचनप्रभृत्य शेष लेखशेखर प्रसून धूलिधोरणी विधूस राङ्घ्रि पीठभूः |
भुजङ्ग राजमालया निबद्ध जाटजूटक श्रियै चिराय जायतां चकोर बन्धुशेखरः ||५||

ललाट चत्वरज्वलद् धनञ्जयस्फुलिङ्गभा निपीत पञ्चसायकं नमन्निलिम्प नायकम् |
सुधा मयूखले खया विराजमानशेखरं महाकपालिसम्पदे शिरोज टालमस्तु नः ||६||

कराल भाल पट्टिका धगद् धगद् धगज्ज्वल द्धनञ्जयाहुती कृतप्रचण्ड पञ्चसायके |
धरा धरेन्द्र नन्दिनी कुचाग्र चित्रपत्रक प्रकल्प नैक शिल्पिनि त्रिलोचने रतिर्मम |||७||

नवीन मेघ मण्डली निरुद् धदुर् धरस्फुरत्- कुहू निशीथि नीतमः प्रबन्ध बद्ध कन्धरः |
निलिम्प निर्झरी धरस् तनोतु कृत्ति सिन्धुरः कला निधान बन्धुरः श्रियं जगद् धुरंधरः ||८||

प्रफुल्ल नीलपङ्कज प्रपञ्च कालिम प्रभा- वलम्बि कण्ठकन्दली रुचिप्रबद्ध कन्धरम् |
स्मरच्छिदं पुरच्छिदं भवच्छिदं मखच्छिदं गजच्छि दांध कच्छिदं तमंत कच्छिदं भजे ||९||

अखर्व सर्व मङ्गला कला कदंब मञ्जरी रस प्रवाह माधुरी विजृंभणा मधुव्रतम् |
स्मरान्तकं पुरान्तकं भवान्तकं मखान्तकं गजान्त कान्ध कान्त कं तमन्त कान्त कं भजे ||१०||

जयत् वदभ्र विभ्रम भ्रमद् भुजङ्ग मश्वस – द्विनिर्ग मत् क्रमस्फुरत् कराल भाल हव्यवाट् |
धिमिद्धिमिद्धिमिध्वनन्मृदङ्गतुङ्गमङ्गल ध्वनिक्रमप्रवर्तित प्रचण्डताण्डवः शिवः ||११||

स्पृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजङ्गमौक्तिकस्रजोर्- – गरिष्ठरत्नलोष्ठयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः |
तृष्णारविन्दचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः समप्रवृत्तिकः ( समं प्रवर्तयन्मनः) कदा सदाशिवं भजे ||१२||

कदा निलिम्पनिर्झरीनिकुञ्जकोटरे वसन् विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरः स्थमञ्जलिं वहन् |
विमुक्तलोललोचनो ललामभाललग्नकः शिवेति मंत्रमुच्चरन् कदा सुखी भवाम्यहम् ||१३||

इदम् हि नित्यमेवमुक्तमुत्तमोत्तमं स्तवं पठन्स्मरन्ब्रुवन्नरो विशुद्धिमेतिसंततम् |
हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नान्यथा गतिं विमोहनं हि देहिनां सुशङ्करस्य चिंतनम् ||१४||

पूजा वसान समये दशवक्त्र गीतं यः शंभु पूजन परं पठति प्रदोषे |
तस्य स्थिरां रथगजेन्द्र तुरङ्ग युक्तां लक्ष्मीं सदैव सुमुखिं प्रददाति शंभुः ||१५||
इति श्रीरावण- कृतम् शिव- ताण्डव- स्तोत्रम् सम्पूर्णम्....

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Posted by prakash chand thapliyal

Friday, 4 March 2016

LORD RAM TEMPLE PROTEST (श्री राम मंदिर आंदोलन) by prakash chand thapliyal

मैं तो इश्क़ लिखने चला, इंक़लाब लिख गया, आई जंग की घड़ी है ,इसको स्वीकार लो !!

जिसकी कलम मे यार हो, पंक्ति मे जिसकी प्यार हो,उस कवि को आज सिरे से तुम नकार दो !!

चाहे हार हो या जीत हो ,देशभक्ति के ही गीत हो, परीक्षा अब निकट है इसको मान लो !!

चाहे छोटा हो या बड़ा, हिन्द के लिए खड़ा, देख के दुश्मन डरा ,संग्राम अब निकट है इसको जान लो !!

जब गौ का अपमान हो, श्री राम का उपहास हो, हिंदुत्व का परिहास हो ,जंग अब निकट है इसको स्वीकार लो !!













मैं अकेला चला, कारवाँ बन गया, वादा है ये भक्त का , सौदा है ये रक्त का, हथेली पे है लेके मस्तक चला !!
मुझको ऐसे वीर दो, दुश्मन का सीना चीर दो, मस्तको का झुण्ड हो, संग्राम अब प्रचंड हो !!

चारो और रामराज हो, केसरिया ही लिवास हो, पुण्य का अब काम हो, हर शिला पे राम हो, हिंदुत्व का उद्घोष हो इस हकीकत को तुम अब जान लो !!






हिन्द की कभी शाम न होने देंगे, वीरो की कुर्बानी कभी बर्बाद न होने देंगे, जब तक बची है एक बूंद भी लहू की हिंदुत्व को कभी बदनाम न होने देंगे !!

जब सारे वानर मिलकर सहस्त्र योजन समुद्र पर सेतु बांध सकते है तो हम तो मनुष्य है ,क्या हम श्रीराम जन्म भूमि पे राममंदिर का सपना साकार नही कर सकते क्या !!





















मैं तो अकेले ही जा रहा हू श्रीराम की सेवा मे फैसला आपके हाथ मे है आप हमारा साथ देते है या नही,

भविष्य मैं जल्द ही एक व्यापक आंदोलन होगा हिन्दू रक्षा समिति द्वारा ..


कृपया ज्यादा से ज्यादा संख्या मैं हमसे जुड़े.....
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Posted by prakash chand thapliyal

Thursday, 3 March 2016

ARTICLE 370 *(जानिए धारा 370 को)

#‎_उड़_जा_पंछी_ये_देश_पराया‬

आज आजाद भारत के अभिन्न हिस्से कश्मीर कुछ ऐसे कानून है जिनसे लगता ही नही की कश्मीर भारत का हिस्सा है!
जान गवाई देश के जवानो ने वीरता दिखलायी थी जिस माटी मे,
घुट रहा है दम तिरंगे का आज उस कश्मीर घाटी मे !
जिस कश्मीर की आजादी के लिए देश के जवानो ने जान गवाइ वो आज खुद गुलामी मे जी रहा है

जरा कश्मीर मे लगे कानूनों पर नज़र डालते है.....

1. जम्मू-कश्मीर के नागरिकों के पास दोहरी नागरिकता होती है ।
2. जम्मू-कश्मीर का राष्ट्रध्वज अलग होता है ।
3.जम्मू - कश्मीर की विधानसभा का कार्यकाल 6 वर्षों का होता है जबकी भारत के अन्य राज्यों की विधानसभाओं का कार्यकाल 5 वर्ष का होता है ।
4.जम्मू-कश्मीर के अन्दर भारत के राष्ट्रध्वज या राष्ट्रीय प्रतीकों का अपमान अपराध नहीं होता है ।
5.भारत के उच्चतम न्यायलय के आदेश जम्मू - कश्मीर के अन्दर मान्य नहीं होते हैं ।
6.भारत की संसद को जम्मू - कश्मीर के सम्बन्ध में अत्यंत सीमित क्षेत्र में कानून बना सकती है ।
7.जम्मू कश्मीर की कोई महिला यदि भारत के किसी अन्य राज्य के व्यक्ति से विवाह कर ले तो उस महिला की नागरिकता समाप्त हो जायेगी । इसके विपरीत यदि वह पकिस्तान के किसी व्यक्ति से विवाह कर ले तो उसे भी जम्मू - कश्मीर की नागरिकता मिल जायेगी ।
8.धारा 370 की वजह से कश्मीर में RTI लागु नहीं है । RTE लागू नहीं है । 
CAG लागू नहीं होता । ...। 
भारत का कोई भी कानून लागु नहीं होता ।
9.कश्मीर में महिलावो पर शरियत कानून लागु है।
10.कश्मीर में पंचायत के अधिकार नहीं।
11.कश्मीर में चपरासी को 2500 ही मिलते है।
12.कश्मीर में अल्पसंख्यको [ हिन्दू- सिख ] को 16 % आरक्षण नहीं मिलता ।
13.धारा 370 की वजह से कश्मीर में बाहर के लोग जमीन नहीं खरीद सकते है।
14.धारा 370 की वजह से ही पाकिस्तानियो को भी भारतीय नागरीकता मिल जाता है । इसके लिए पाकिस्तानियो को केवल किसी कश्मीरी लड़की से शादी करनी होती है!
जिसकी शरहदो को हुर्रियत और अलगाववादियों ने घेरा ,
किस हक़ से केह दू कश्मीर तु है मेरा !
वीरो ने जान गवाकर भी कुछ नही पाया,
उड़ जा पंछी अब ये देश पराया !
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Posted by prakash chand thapliyal

Saturday, 27 February 2016

Message of prakash chand thapliyal on behalf of intolerance

कुछ बुद्धिजीवी ये कहते है कि उन्हें देशद्रोही कन्हैया कुमार से इसलिए हमदर्दी है क्योंकि वो बिहार का रहने वाला है....

उन सियासी बेवकूफो से एक सच्चे देशभक्त का सवाल ?
अगर बिहार का कोई व्यक्ति आपकी माँ य बहन की इज्जत पे हाथ डाले तो क्या तब भी आप उन से हमदर्दी रखोगे...

अब तो प्रशन माँ भारती का है  तो एक सच्चा देशभक्त कैसे चुप रहेगा...

"चीर दिया सीना वेदों का, घायल किया पुराणों को..!
बेच दिया वोटों की खातिर,संस्कृति के प्रतिमानों को..!!" .

"हरे रंग को खुश करने में, भगवा को नीलाम किया..!
अरे सियासी कलमूहों यह बहुत घिनौना काम किया..!!"

"तुमने काशी-पूरी-द्वारिका के ध्वज को दुत्कारा है..!
आजम और ओवेसी अब तक जिन्दा है ये अपराध तुम्हारा है..!!"

 "जिस रंग से पहचान हमारी धर्म सनातन जिंदा है..!
उसपर तुमने दाग लगाया हर हिन्दू शर्मिंदा है..!!"

"भगवा को आतंक बताने वालों मुझको लगता है..!
नस्ल तुम्हारी नकली है और खून तुम्हारा गन्दा है..!!

पुत्र मैं माँ भवानी का ...
मुझ पर किसका जोर ...
काट दूंगा हर वो सर ...
जो उठा मेरे धर्म की ओर ...
भुल जाओ अपनी जात ...
करो सिर्फ धर्म की बात ...
एकबार नही ...
सौ बार सही ...
हर बार यही दोहरायेगे ...
जहाँ जन्म हुआ ...
प्रभु श्री राम जी का ...
मंदिर वहीं बनायेंगे .

जय श्री राम!
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Posted by prakash chand thapliyal

Friday, 26 February 2016

Book of pain (दर्द की किताब)

जरा आराम से पलटना,
एक एक पन्ना,
इस किताब का,
यह एक दर्द की किताब है........
इस पूरी किताब में

इस किताब के हर एक पन्ने मे,
पन्ने के हर अनुच्छेद मे ,
अनुच्छेद की हर पंक्ति मे ,
पंक्ति के हर शब्द मे,
और हर शब्द के अर्थ मे,
दर्द ही दर्द है ,बेहिसाब दर्द है ,
यह एक दर्द की किताब है.........

न कसूर कलम का है ,
न स्याही का ,और न
मेरे अंदाज़ ए बयां का ,
ये तो दर्द ही था जो,
भीतर से निकलकर ,
कागज़ पर फैलता चला गया ,
फैलता चला गया, फैलता चला गया,
यह एक दर्द की किताब है........

यह दर्द है उन निश्चल नयनों का,
उन खिले लबों का ,उन चंचल बोलियों का,
उन करहाती चीखों का ,सिसकती साँसों का,
दर्द है उस कली का जो खिलने से पहले ही मसल दी गई,
नारी के अस्तित्व का ,स्त्री की गरिमा का,
जरा आहिस्ता से पलटना एक- एक पन्ना,
यह एक दर्द की किताब है ..........

दर्द उस गरीब का, उस सूखी रोटी का,
उस भूख से तड़पते बच्चे का, दर्द मासूमियत का,
दर्द खोते बचपन का ,इंसानियत की मौत का,
फुटपाथ पर सोते मजदूर का ,अमीर की अय्यासी का ,
गिरते हुए वतन का ,इंसानियत के पतन का,
जरा तस्सली से पलटना हर एक पन्ना
यह एक दर्द की किताब है.........

दर्द बोर्डर पे खड़े इंसान का,ऊपर से देख रहे भगवान का, विकते हुए इंसान का,झूठी शान का ,
दर्द आम आदमी का ,पाखंडी राजनेताओं का,
फैले हुए आक्रोश का ,समाज मे फैले अन्याय का ,
अगर जिगर हो तब ही आगे पलटना,
यह एक दर्द की किताब है........

दर्द ‪#‎रामराज‬ के नाश का ,विदेशी संस्कृति के राज का ,
हिन्द के परिहास का,हिंदुत्व के नाश का ,
गऊ के अपमान का ,माँ के स्वाभिमान का ,
गिरती हुई संस्कृति का ,जलती हुई प्रकृति का,
सोती हुई सरकार का ,विखरे समाज का,
आतंकियो के राज का ,देश के विनाश का,
दर्द ही दर्द है ,यहां से वहां तक ,
यह एक दर्द की किताब है.......

मेरे दिल को चीरती है यह एक वेदना,
कहाँ गयी मेरे देश के लोगों की संवेदना !
मेरा देश तो ऐसा देश था भाई लाखों बार मुसीबत आई,
सबने मिलकर करी लड़ाई पर देश की लाज बचाई !!
यह बात जरूर याद रखना.....
आज भी भारत में वृन्दावन मे श्री कृष्ण रास करते ,
हर स्त्री मे सीता और पुरुष मे श्री राम वास करते है!

मै अपने सारे सौ करोड़ हिन्दू भाइयों का आवाहन करता हूँ आओ
मिलकर देश का फिर से निर्माण करते है .....
कृपया भारी से भारी संख्या में हमसे जुड़े
‪bloggerpct‬
Posted by prakash chand thapliyal