Monday, 9 May 2016

सर्वाधिक प्रिय पुरुष (तृतीय भाग)

द्वितीय भाग का शेष..

भगवतगीता में कृष्ण कहते हैं कि पुण्य कर्मो से मनुष्य सर्वोच्च भौतिक लोक अर्थात ब्रह्मलोक को प्राप्त कर सकता है जहाँ पर जीवन की अवधि करोड़ो वर्ष की है | आप वहाँ की जीवन-अवधि की गणना नही कर सकते, आपका सारा गणित का ज्ञान निष्फल हो जाता है |भगवतगीता मे कहा गया है की ब्रह्मा का जीवन इतना दीर्घ है कि हमारे  4,32,00,00,000 वर्ष उनके बारह घंटो के तुल्य हैं| कृष्ण कहते है,"तुम चींटी से लेकर ब्रह्मा तक कोई भी पद इच्छानुसार प्राप्त कर सकते हो पर वहां पर भी जन्म-मरण की पुनरावृत्ति होगी| किन्तु यदि तुम कृष्णभावनामृत का अभ्यास करके मेरे पास आते हो,तो तुम्हें इस कष्ट-प्रद भौतिक जगत् में पुनः नही आना होगा|"
प्रह्लाद महाराज यही बात कहते है,"हमें अपने सर्वाधिक प्रिय मित्र,परम भगवान् कृष्ण की खोज करनी चाहिए"वे हमारे सर्वाधिक प्रिय मित्र क्यों हैं? वे स्वाभिक रूप से प्रिय है| क्या आपने कभी विचार किया है कि आप किसे सर्वाधिक प्रिय वस्तु मानते हैं? आप स्वयं ही वह सर्वाधिक प्रिय वस्तु हैं| उदाहरणतः मैं यहाँ बैठा हूँ किन्तु यदि आग लगने की चेतावनी दी जाये ,तो मैं तुरंत अपनी रक्षा के विषय में सोचूँगा |मैं सर्वप्रथम सोचूंगा कि मैं अपने आप को किस प्रकार बचा सकता हूँ | तब हम अपने मित्रों और अपने संबंधियो तक को भूल जाते हैं और यही भाव रहता है कि सर्वप्रथम मैं अपने को बचा लूँ | आत्म-रक्षा प्रकृति का सर्वप्रथम नियम है|
स्थूल दृश्टिकोण से आत्मा, "स्वयं" शब्द का अर्थ शरीर है किन्तु सूक्ष्म अर्थ में मन य बुद्धि ही आत्मा है| और वस्तुतः आत्मा का अर्थ आत्मा ही है| स्थूल अवस्था में हम अपने शरीर की रक्षा करने तथा उसे तुष्ट करने में अत्यधिक रुचि लेते हैं किन्तु सूक्ष्मतर अवस्था में मन तथा बुद्धि को तुष्ट करने में रुचि लेते हैं|किन्तु मानसिक तथा बौद्धिक स्तर के ऊपर , जहाँ का वातावरण अध्यतमिक्रत है,हम यह समझ सकते है कि अहं ब्रहास्मि अर्थात् "मैं यह मन, बुद्धि या शरीर नही हूँ- मैं तो आत्मा हूँ - भगवान् का भीन्नाशं|" यही है वास्तविक समझ य ज्ञान का स्तर य पद|
प्रह्लाद महाराज कहते हैं कि समस्त जीवों में से विष्णु परम हितैषी हैं| इसलिए हम सभी उनकी खोज में लगे हैं| जब बालक रोता है,तो वह क्या चाहता है? अपनी माता|किन्तु इसे व्यक्त करने के लिए  उसके पास कोई भाषा नही होती| स्वभावतः उसके पास उसका शरीर है जो उसकी माता के शरीर से उत्पन्न होता है अतएव अपनी माता के शरीर से उसका घनिष्ट संबंध होता हैं| बालक अन्य किसी स्त्री को नही चाहेगा|बालक रोत है किन्तु जब वह स्त्री ,जो बालक की माँ होती है,आती है और उसे गोद में उठा लेती है तो वह बालक शांत हो जाता है| यह सब व्यक्त करने के लिए उसके पास कोई भाषा नही होती किन्तु उसकी माता से उसका संबंध प्रकृति का नियम है| इसी तरह हम स्वाभिक रूप से शरीर की रक्षा करना चाहते है|यह आत्म-संरक्षण हैं| यह जीव का प्राकृतिक नियम है और सोना भी प्राकृतिक नियम है|तो मैं शरीर की रक्षा क्यों करु? क्योकि इस शरीर के भीतर आत्मा है|
जारी...
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Posted by prakash chand thapliyal

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