Wednesday, 11 May 2016

सर्वाधिक प्रिय पुरुष (चतुर्थ भाग)

तृतीय भाग का शेष..
यह आत्मा क्या है? यह आत्मा भगवान् का अंश है| जिस तरह हम हाथ या अंगुली की रक्षा करना चाहते हैं क्योंकि वह पूरे शरीर का अंग है,उसी तरह हम अपने को बचाना चाहते हैं क्योंकि यही भगवान् की रक्षा-विधि है| भगवान् को रक्षा की आवश्यकता नही होती यह तो उनके प्रति हमारे प्रेम की अभिव्यक्ति है जो अब विकृत हो चुकी है| अँगुली तथा हाथ सारे शरीर के हितार्थ काम करने के लिए हैं | जैसे ही मैं चाहता हूँ कि मेरा हाथ यहां आये तो वह तुरंत आ जाता है और जैसे ही मैं चाहता हूँ कि अँगुली मृदंग बजाये,वह बजने लगती है| यह प्राकृतिक स्तिथि है| इसी तरह हम अपनी शक्ति को भगवान् की सेवा में लगाने के लिए उनकी खोज करते हैं किन्तु माया शक्ति के प्रभाव के कारण हम इसे जान नहीँ पाते | यही हमारी भूल है| मनुष्य जीवन में हमे यह सुयोग मिला है कि हम अपनी वास्तविक स्तिथि को समझें | चूँकि आप सभी मनुष्य हैं इसलिए आप सभी कृष्णभावनामृत सीखने यहाँ आये हैं जो कि आपके जीवन का वास्तविक लक्ष्य है|मैं कुत्ते बिल्लियों को यहाँ बैठने के लिए आमंत्रित नही कर सकता | यही अंतर है मनुष्यो और कुत्ते-बिल्लियों में| मनुष्य जीवन के वास्तविक लक्ष्य को प्राप्त करने कि आवश्यकता को समझ सकता है| किन्तु यदि वह इस सुअवसर को खो देता है ,तो इसे महान अनर्थ समझना चाहिए|
प्रह्लाद महाराज कहते हैं,"ईश्वर सर्वाधिक प्रिय व्यक्ति हैं|हमें उनकी खोज करनी चाहिए|"तब जीवन की भौतिक आवश्यकताओं के विषय में क्या होगा? प्रह्लाद महाराज उत्तर देते हैं,"तुम लोग इन्द्रिय तृप्ति के प्रति आसक्त हो किन्तु इन्द्रिय तृप्ति तो इस शरीर के संसर्ग से स्वतः ही प्राप्त हो जाती है|" चूँकि सुअर को एक विशेष प्रकार का शरीर मिला है अतएव उसकी इन्द्रिय तृप्ति मल भक्षण से होती है जो आप सब के लिए घृणित वस्तु है| मल त्याग करने के बाद आप दुर्गंध से बचने के लिए तत्काल ही स्थान त्याग कर देते है लेकिन सुअर प्रतीक्षा करता रहता है|जैसे ही आप मल त्यागेंगे ,वह तुरंत उसका आनंद उठता है| अतएव शरीर के विविध प्रकारो के अनुसार इन्द्रिय तृप्ति भिन्न भिन्न प्रकार की होती है| इन्द्रिय तृप्ति प्रत्येक देहधारी को प्राप्त होती है| ऐसा कभी मत सोचे की मल खाने वाले सुअर दुखी है|नहीं|वे मल भक्षण कर मोटे हो रहे हैं|वे अत्यंत सुखी है|
दूसरा उदाहरण ऊट का है |ऊट कटीली झाड़ियो के प्रति आसक्त होता है| क्यों? क्योंकि जब वह कटीली झाड़िया खाता है तो वो उसकी जीभ काट देती हैं| जिससे उसका रक्त चुने लगता हैं और वह अपने ही रक्त का आस्वादन करता है|तब वह सोचता है,"में आनंद प रहा हूँ|"यह इन्द्रिय तृप्ति है|यौन जीवन भी ऐसा ही है|हम अपने ही रक्त का आस्वादन करते हैं और सोचते है कि हम आनंद लूट रहे हैं|यही हमारी मूर्खता है|
जारी...
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Posted by prakash chand thapliyal

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