तृतीय भाग का शेष..
प्रह्लाद महाराज कहते हैं कि इस अवस्था में ,जब आप भौतिकवाद में अत्यधिक लीन हों,तो आप कृष्णभावनामृत का अनुशीलन नहीं कर सकते|इसलिए मनुष्य को बालपन से ही कृष्णभावनामृत का अभ्यास करना चाहिए|निस्संदेह चैतन्य महाप्रभु इतने दयालु हैं कि वे कहते हैं,"कभी न करने की अपेक्षा विलंब से करना श्रेष्ठ है" यद्यपि तुम अपने बालपन से ही कृष्णभावनामृत को प्रारम्भ करने का अवसर गवाँ दिया हो,किन्तु तुम जैसी भी स्तिथि में हो वहीं से आरम्भ करो|यही चैतन्य महाप्रभु की शिक्षा है|उन्होंने यह कभी नहीं कहा कि चूँकि तुमने अपने बचपन से कृष्णभावनामृत नहीं शुरू किया इसलिए तुम उन्नति नहीं कर सकते|वे अत्यंत कृपालु हैं|उन्होंने हमें यह उत्तम हरे कृष्ण कीर्तन की विधि प्रदान की है-
हरे कृष्ण,हरे कृष्ण,कृष्ण कृष्ण,हरे हरे,हरे राम,हरे राम,राम राम,हरे हरे|आप चाहे जवान हो या बूढ़े,चाहे आप जो भी हो,बस इसे शुरू कर दें|आप यह नही जानते कि आपका जीवन कब समाप्त हो जायेगा|यदि आप निष्ठापूर्वक क्षणभर के लिए भी कीर्तन करते हैं,तो इनका बहुत प्रभाव पड़ेगा|यह आपको महान् से महान् संकट से,अगले जीवन में पशु बनने से बचा लेगा|
यद्यपि प्रह्लाद महाराज पाँच वर्ष के हैं किन्तु एक अत्यंत अनुभवी तथा शिक्षित व्यक्ति की तरह बोलते हैं क्योंकि उन्होंने अपने गुरु नारद मुनि से ज्ञान प्राप्त किया था|ज्ञान आयु पे निर्भर नही करता है|केवल आयु मे वृद्धि से ही कोई चतुर नहीं बन जाता|ऐसा संभव नहीं है|ज्ञान एक श्रेष्ठ स्त्रोत से ग्रहण करना नहीं होता,तभी मनुष्य बुद्धिमान हो सकता है|इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि कोई पांच वर्ष का बालक है या पचास वर्ष का बूढ़ा|जैसा कि कहा जाता है,"ज्ञान से मनुष्य कम आयु का होने पर भी वृद्ध माना जाता है|"
यद्यपि प्रह्लाद महाराज केवल पाँच वर्ष के थे किन्तु ज्ञान में उन्नत होने के कारण वे अपने सहपाठियों को सम्यक उपदेश दे रहे थे|कुछ लोगों को ये उपदेश अरुचिकर लग सकते हैं|मान लीजिये कोई व्यक्ति विवाहित है और प्रह्लाद का उपदेश है कि,"कृष्णभावनामृत ग्रहण कीजिए|"वह सोचेगा "मैं अपनी पत्नी को कैसे छोड़ सकता हूँ?" हम तो साथ साथ उठते,बैठते,बातें करते और आनंद मानते हैं|भला कैसे छोड़ सकता हूँ? पारिवारिक आकर्षण अत्यंत प्रबल होता है|
वैदिक प्रणाली के अनुसार मनुष्य को पचास वर्ष की आयु में अपना परिवार छोड़ना ही पड़ता है|उसे जाना ही पड़ेगा|इसका कोई दूसरा विकल्प नही है|प्रथम पच्चीस वर्ष विद्यार्थी जीवन के लिए हैं|पांच वर्ष से पच्चीस वर्ष की आयु तक उसे कृष्णभावनामृत की सुचारू रूप से शिक्षा दी जानी चाहिए|मनुष्य की शिक्षा का मूल सिद्धांत कृष्णभावनामृत के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं होना चाहिए|तभी इस लोक में तथा अगले लोक में यह जीवन सुखमय तथा सफल होगा |कृष्ण भावना भावित शिक्षा का अर्थ है कि मनुष्य को पूरी तरह भौतिक चेतना छोड़ने के लिए प्रशिक्षित किया गया है|यही सम्यक कृष्णभावनामृत है|
किन्तु यदि कोई विद्यार्थी कृष्णभावनामृत के सार को ग्रहण नहीं कर पाता तो उसे सुयोग्य पत्नी से विवाह करने और शांतिपूर्ण गृहस्थ जीवन बिताने की अनुमति दी जाती है|चूँकि उसे कृष्णभावनामृत के मूल सिद्धांत का प्रशिक्षण दिया जा चुका होता है इसलिए वह इस भौतिक जगत् में नहीं फसेगा|जो व्यक्ति सादा जीवन बिताता है-सादा जीवन और उच्च विचार-वह पारिवारिक जीवन में भी कृष्णभावनामृत में प्रगति कर सकता है |
जारी...
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posted by prakash chand thapliyal
प्रह्लाद महाराज कहते हैं कि इस अवस्था में ,जब आप भौतिकवाद में अत्यधिक लीन हों,तो आप कृष्णभावनामृत का अनुशीलन नहीं कर सकते|इसलिए मनुष्य को बालपन से ही कृष्णभावनामृत का अभ्यास करना चाहिए|निस्संदेह चैतन्य महाप्रभु इतने दयालु हैं कि वे कहते हैं,"कभी न करने की अपेक्षा विलंब से करना श्रेष्ठ है" यद्यपि तुम अपने बालपन से ही कृष्णभावनामृत को प्रारम्भ करने का अवसर गवाँ दिया हो,किन्तु तुम जैसी भी स्तिथि में हो वहीं से आरम्भ करो|यही चैतन्य महाप्रभु की शिक्षा है|उन्होंने यह कभी नहीं कहा कि चूँकि तुमने अपने बचपन से कृष्णभावनामृत नहीं शुरू किया इसलिए तुम उन्नति नहीं कर सकते|वे अत्यंत कृपालु हैं|उन्होंने हमें यह उत्तम हरे कृष्ण कीर्तन की विधि प्रदान की है-
हरे कृष्ण,हरे कृष्ण,कृष्ण कृष्ण,हरे हरे,हरे राम,हरे राम,राम राम,हरे हरे|आप चाहे जवान हो या बूढ़े,चाहे आप जो भी हो,बस इसे शुरू कर दें|आप यह नही जानते कि आपका जीवन कब समाप्त हो जायेगा|यदि आप निष्ठापूर्वक क्षणभर के लिए भी कीर्तन करते हैं,तो इनका बहुत प्रभाव पड़ेगा|यह आपको महान् से महान् संकट से,अगले जीवन में पशु बनने से बचा लेगा|
यद्यपि प्रह्लाद महाराज पाँच वर्ष के हैं किन्तु एक अत्यंत अनुभवी तथा शिक्षित व्यक्ति की तरह बोलते हैं क्योंकि उन्होंने अपने गुरु नारद मुनि से ज्ञान प्राप्त किया था|ज्ञान आयु पे निर्भर नही करता है|केवल आयु मे वृद्धि से ही कोई चतुर नहीं बन जाता|ऐसा संभव नहीं है|ज्ञान एक श्रेष्ठ स्त्रोत से ग्रहण करना नहीं होता,तभी मनुष्य बुद्धिमान हो सकता है|इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि कोई पांच वर्ष का बालक है या पचास वर्ष का बूढ़ा|जैसा कि कहा जाता है,"ज्ञान से मनुष्य कम आयु का होने पर भी वृद्ध माना जाता है|"
यद्यपि प्रह्लाद महाराज केवल पाँच वर्ष के थे किन्तु ज्ञान में उन्नत होने के कारण वे अपने सहपाठियों को सम्यक उपदेश दे रहे थे|कुछ लोगों को ये उपदेश अरुचिकर लग सकते हैं|मान लीजिये कोई व्यक्ति विवाहित है और प्रह्लाद का उपदेश है कि,"कृष्णभावनामृत ग्रहण कीजिए|"वह सोचेगा "मैं अपनी पत्नी को कैसे छोड़ सकता हूँ?" हम तो साथ साथ उठते,बैठते,बातें करते और आनंद मानते हैं|भला कैसे छोड़ सकता हूँ? पारिवारिक आकर्षण अत्यंत प्रबल होता है|
वैदिक प्रणाली के अनुसार मनुष्य को पचास वर्ष की आयु में अपना परिवार छोड़ना ही पड़ता है|उसे जाना ही पड़ेगा|इसका कोई दूसरा विकल्प नही है|प्रथम पच्चीस वर्ष विद्यार्थी जीवन के लिए हैं|पांच वर्ष से पच्चीस वर्ष की आयु तक उसे कृष्णभावनामृत की सुचारू रूप से शिक्षा दी जानी चाहिए|मनुष्य की शिक्षा का मूल सिद्धांत कृष्णभावनामृत के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं होना चाहिए|तभी इस लोक में तथा अगले लोक में यह जीवन सुखमय तथा सफल होगा |कृष्ण भावना भावित शिक्षा का अर्थ है कि मनुष्य को पूरी तरह भौतिक चेतना छोड़ने के लिए प्रशिक्षित किया गया है|यही सम्यक कृष्णभावनामृत है|
किन्तु यदि कोई विद्यार्थी कृष्णभावनामृत के सार को ग्रहण नहीं कर पाता तो उसे सुयोग्य पत्नी से विवाह करने और शांतिपूर्ण गृहस्थ जीवन बिताने की अनुमति दी जाती है|चूँकि उसे कृष्णभावनामृत के मूल सिद्धांत का प्रशिक्षण दिया जा चुका होता है इसलिए वह इस भौतिक जगत् में नहीं फसेगा|जो व्यक्ति सादा जीवन बिताता है-सादा जीवन और उच्च विचार-वह पारिवारिक जीवन में भी कृष्णभावनामृत में प्रगति कर सकता है |
जारी...
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