अब प्रह्लाद महाराज भौतिक जीवन की जटिलताओं के विषय में आगे कहते हैं|वे आसक्त गृहस्थ की उपमा रेशम के कीट से देते हैं|रेशम का कीट अपने ही थूक से बनाये गए रेशमकोष में अपने को तब तक लपेटता रहता है,जब तक वह इस रेशमकोष मे बन्दी नहीं हो जाता|वह वहाँ से निकल नहीं सकता|इसी प्रकार भोतिकवादी गृहस्थ का बंधन इतना दृढ़ हो जाता है कि वह पारिवारिक आकर्षण रूपी कोष् से निकल नहीं पता|यद्यपि भौतिकवादी गृहस्थ जीवन में अनेकानेक कष्ट हैं किन्तु वह उनसे छूट नहीं पाता|क्यों? क्योंकि वह सोचता है कि मैथुन-भोग तथा स्वादिस्ट भोजन अत्यंत महत्वपूर्ण हैं|इसलिए अनेकानेक कष्टों के होने पर भी वह उनका परित्याग नहीं कर पता|
इस तरह जब कोई व्यक्ति पारिवारिक जीवन में अत्यधिक फंसा रहता है तो वह अपने जीवन से मुक्ति पाने के विषय में,सोच नहीं पाता|यद्यपि वह भौतिकवादी जीवन के तीन तापों से सदैव विचलित रहता है तथापि प्रबल पारिवारिक स्नेह के कारण वह बाहर नहीं आ पाता|वह यह नहीं जानता कि मात्र पारिवारिक स्नेहवश वह अपनी सीमित आयु को नष्ट कर रहा है|वह उस जीवन को नस्ट कर रहा है जो आत्म-साक्षात्कार के लिए,अपने वास्तविक आध्यात्मिक जीवन की अनुभूति करने के लिए मिला था|
प्रह्लाद महाराज पने आसुरी मित्रों से कहते हैं,"इसलिए तुम लोग उनकी संगति छोड़ दो जो भौतिक भोगों में आसक्त हैं|तुम लोग उन व्यक्तियो की संगति क्यों नही करते जो कृष्णभावनामृत का अनुशीलन कर रहे हैं|"यही उनका उपदेश है|वे अपने मित्रो से कहते हैं कि कृष्णभावनामृत को प्राप्त करना सरल है|क्यों? वस्तुतः कृष्णभावनामृत हमें अत्यंत प्रिय है किन्तु हम उसे भूल चुके हैं|अंतः जो व्यक्ति कृष्णभावनामृत को अंगीकार करता है वह इससे आधिकारिक प्रभावित होता है और अपनी भौतिक चेतना को भूल जाता है|
यदि आप विदेश में हैं तो आप अपने घर को,अपने परिवारजनों को तथा अपने मित्रों को भूल सकते हैं जो आपको अत्यंत प्रिय है|किन्तुव्यदि आपको आचनक उनकी स्मृति हो जाए तो आप तुरंत अभिभूत हो उठेंगे "मैं उनसे कैसे मिल सकूँगा?"इसी प्रकार कृष्ण के प्रति हमारा स्नेह इतना प्रगाढ़ है कि हमे तुरंत ही कृष्ण से अपना संबंध का स्मरण हो जाता है|
जारी....
bloggerpct
Posted by prakash chand thapliyal
इस तरह जब कोई व्यक्ति पारिवारिक जीवन में अत्यधिक फंसा रहता है तो वह अपने जीवन से मुक्ति पाने के विषय में,सोच नहीं पाता|यद्यपि वह भौतिकवादी जीवन के तीन तापों से सदैव विचलित रहता है तथापि प्रबल पारिवारिक स्नेह के कारण वह बाहर नहीं आ पाता|वह यह नहीं जानता कि मात्र पारिवारिक स्नेहवश वह अपनी सीमित आयु को नष्ट कर रहा है|वह उस जीवन को नस्ट कर रहा है जो आत्म-साक्षात्कार के लिए,अपने वास्तविक आध्यात्मिक जीवन की अनुभूति करने के लिए मिला था|
प्रह्लाद महाराज पने आसुरी मित्रों से कहते हैं,"इसलिए तुम लोग उनकी संगति छोड़ दो जो भौतिक भोगों में आसक्त हैं|तुम लोग उन व्यक्तियो की संगति क्यों नही करते जो कृष्णभावनामृत का अनुशीलन कर रहे हैं|"यही उनका उपदेश है|वे अपने मित्रो से कहते हैं कि कृष्णभावनामृत को प्राप्त करना सरल है|क्यों? वस्तुतः कृष्णभावनामृत हमें अत्यंत प्रिय है किन्तु हम उसे भूल चुके हैं|अंतः जो व्यक्ति कृष्णभावनामृत को अंगीकार करता है वह इससे आधिकारिक प्रभावित होता है और अपनी भौतिक चेतना को भूल जाता है|
यदि आप विदेश में हैं तो आप अपने घर को,अपने परिवारजनों को तथा अपने मित्रों को भूल सकते हैं जो आपको अत्यंत प्रिय है|किन्तुव्यदि आपको आचनक उनकी स्मृति हो जाए तो आप तुरंत अभिभूत हो उठेंगे "मैं उनसे कैसे मिल सकूँगा?"इसी प्रकार कृष्ण के प्रति हमारा स्नेह इतना प्रगाढ़ है कि हमे तुरंत ही कृष्ण से अपना संबंध का स्मरण हो जाता है|
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