प्रथम भाग का शेष..
प्रत्येक व्यक्ति का भगवान् कृष्ण से कुछ न कुछ विशेष संबंध होता है जिसे वह भूल चुका है|किन्तु जैसे जैसे हम कृष्ण-भावनाभवित होते जाते हैं,वैसे वैसे कृष्ण के साथ हमारे सबंध की पुरानी चेतना क्रमशः स्पस्ट होती जाती है|और जब हमारी चेतना वास्तव में सुस्पष्ट हो जाती है हो हम कृष्ण के साथ अपने विशेष संबंध को समझ सकते है|कृष्ण के साथ हमारा संबंध पुत्र या दास के रूप में,मित्र के रूप में,माता-पिता के रूप में अथवा प्रेमिका या प्रिय पत्नी के रूप में हो सकता है|ये सारे संबंध इस भौतिक जगत् में विकृत रूप में प्रतिबिम्बित होते हैं|किन्तु कृष्णभावनामृत के पद को प्राप्त करते ही कृष्ण से हमारा पुराना संबंध फिर से जाग्रत हो उठता है|
हममे से हर व्यक्ति प्रेम करता है|सर्वप्रथम मैं अपने शरीर से प्रेम करता हूँ क्योंकि मेरी आत्मा इस शरीर के भीतर है|अतएव मैं अपनी आत्मा को अपने शरीर से बढ़कर प्रेम करता हूँ|किन्तु उस आत्मा का कृष्ण से घनिष्ठ संबंध है क्योंकि आत्मा कृष्ण का ही एक भिन्न अंश है|इसलिए मैं कृष्ण से सर्वाधिक प्रेम करता हूँ और चूँकि कृष्ण सर्वव्यापक हैं अतएव मैं हर वस्तु से प्रेम करता हूँ|
दुर्भाग्यवश हम भूल चुके हैं कि कृष्ण य ईश्वर सर्वव्यापक हैं|इस स्मृति को पुनर्जीवित करना है|अपने कृष्णभावनामृत को पुनर्जीवित करते ही हम हर वस्तु को कृष्ण से संबंधित कर सकेंगे और तब प्रत्येक वस्तु प्रेम करने योग्य हो जायेगी|मैं तुम्हे प्रेम करता हूँ या तुम मुझे प्रेम करते हो किन्तु यह प्रेम इस क्षणभंगुर शरीर के स्तर पर है|किन्तु जब कृष्ण-प्रेम विकसित हो जाता है तो मैं न केवल तुमसे प्रेम करूँगा अपितु मैं हर जीव से प्रेम करूँगा क्योंकि तब बाह्य उपाधि अर्थात् शरीर विस्मृत हो जायेगा|जब कोई व्यक्ति पूर्णतया कृष्ण भावनाभवित हो जाता है हो वह यह नही सोचता कि यह मनुष्य है,यह पशु है,यह कुत्ता है,यह बिल्ली है,यह कीड़ा है|वह प्रत्येक को कृष्ण के भिन्नाश रूप में देखता है|इसकी सुंदर व्याख्या भगवतगीता में हुई है,"जो वास्तविक कृष्णभावनामृत का ज्ञाता है,वह इस ब्रह्माण्ड में प्रत्येक जीव को प्रेम करता है|"जब तक कोई व्यक्ति कृष्ण भावनाभवित पद पर स्तिथ नहीं हो जाता,तब तक विश्वबंधुत्व का प्रश्न ही नही उठता|
यदि हम वास्तव मे विश्वबंधुत्व के विचार को कार्यान्वित करना चाहते है,तो हमें भौतिक चेतना की अपेक्षा कृष्ण-भावनामृत के पद पर पहुचना होगा| जब तक हम भौतिक चेतना में रहेंगे हमारी प्रेय वस्तुओं की संख्या सीमित होगी किन्तु जब हम वास्तव में कृष्णभावनामृत में होंगे तो हमारे प्रेय सार्वभौम होंगे|प्रह्लाद महाराज यही कहते हैं,"जड़ वृक्षो से लेकर सर्वोच्च सजीव प्राणी ब्रह्मा तक में भगवान् अपने परमात्मा रूप के विस्तार में सर्वत्र उपस्थित हैं|जैसे ही हम कृष्ण भावनाभवित हो जाते हैं,पूर्ण पुरषोत्तम् भगवान के वह विस्तार परमातमा हमें प्रेरित करते हैं कि हम हर वस्तु को कृष्ण से संबंधित जानकर प्रेम करे|"
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Posted by prakash chand thapliyal
प्रत्येक व्यक्ति का भगवान् कृष्ण से कुछ न कुछ विशेष संबंध होता है जिसे वह भूल चुका है|किन्तु जैसे जैसे हम कृष्ण-भावनाभवित होते जाते हैं,वैसे वैसे कृष्ण के साथ हमारे सबंध की पुरानी चेतना क्रमशः स्पस्ट होती जाती है|और जब हमारी चेतना वास्तव में सुस्पष्ट हो जाती है हो हम कृष्ण के साथ अपने विशेष संबंध को समझ सकते है|कृष्ण के साथ हमारा संबंध पुत्र या दास के रूप में,मित्र के रूप में,माता-पिता के रूप में अथवा प्रेमिका या प्रिय पत्नी के रूप में हो सकता है|ये सारे संबंध इस भौतिक जगत् में विकृत रूप में प्रतिबिम्बित होते हैं|किन्तु कृष्णभावनामृत के पद को प्राप्त करते ही कृष्ण से हमारा पुराना संबंध फिर से जाग्रत हो उठता है|
हममे से हर व्यक्ति प्रेम करता है|सर्वप्रथम मैं अपने शरीर से प्रेम करता हूँ क्योंकि मेरी आत्मा इस शरीर के भीतर है|अतएव मैं अपनी आत्मा को अपने शरीर से बढ़कर प्रेम करता हूँ|किन्तु उस आत्मा का कृष्ण से घनिष्ठ संबंध है क्योंकि आत्मा कृष्ण का ही एक भिन्न अंश है|इसलिए मैं कृष्ण से सर्वाधिक प्रेम करता हूँ और चूँकि कृष्ण सर्वव्यापक हैं अतएव मैं हर वस्तु से प्रेम करता हूँ|
दुर्भाग्यवश हम भूल चुके हैं कि कृष्ण य ईश्वर सर्वव्यापक हैं|इस स्मृति को पुनर्जीवित करना है|अपने कृष्णभावनामृत को पुनर्जीवित करते ही हम हर वस्तु को कृष्ण से संबंधित कर सकेंगे और तब प्रत्येक वस्तु प्रेम करने योग्य हो जायेगी|मैं तुम्हे प्रेम करता हूँ या तुम मुझे प्रेम करते हो किन्तु यह प्रेम इस क्षणभंगुर शरीर के स्तर पर है|किन्तु जब कृष्ण-प्रेम विकसित हो जाता है तो मैं न केवल तुमसे प्रेम करूँगा अपितु मैं हर जीव से प्रेम करूँगा क्योंकि तब बाह्य उपाधि अर्थात् शरीर विस्मृत हो जायेगा|जब कोई व्यक्ति पूर्णतया कृष्ण भावनाभवित हो जाता है हो वह यह नही सोचता कि यह मनुष्य है,यह पशु है,यह कुत्ता है,यह बिल्ली है,यह कीड़ा है|वह प्रत्येक को कृष्ण के भिन्नाश रूप में देखता है|इसकी सुंदर व्याख्या भगवतगीता में हुई है,"जो वास्तविक कृष्णभावनामृत का ज्ञाता है,वह इस ब्रह्माण्ड में प्रत्येक जीव को प्रेम करता है|"जब तक कोई व्यक्ति कृष्ण भावनाभवित पद पर स्तिथ नहीं हो जाता,तब तक विश्वबंधुत्व का प्रश्न ही नही उठता|
यदि हम वास्तव मे विश्वबंधुत्व के विचार को कार्यान्वित करना चाहते है,तो हमें भौतिक चेतना की अपेक्षा कृष्ण-भावनामृत के पद पर पहुचना होगा| जब तक हम भौतिक चेतना में रहेंगे हमारी प्रेय वस्तुओं की संख्या सीमित होगी किन्तु जब हम वास्तव में कृष्णभावनामृत में होंगे तो हमारे प्रेय सार्वभौम होंगे|प्रह्लाद महाराज यही कहते हैं,"जड़ वृक्षो से लेकर सर्वोच्च सजीव प्राणी ब्रह्मा तक में भगवान् अपने परमात्मा रूप के विस्तार में सर्वत्र उपस्थित हैं|जैसे ही हम कृष्ण भावनाभवित हो जाते हैं,पूर्ण पुरषोत्तम् भगवान के वह विस्तार परमातमा हमें प्रेरित करते हैं कि हम हर वस्तु को कृष्ण से संबंधित जानकर प्रेम करे|"
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