Monday, 4 July 2016

पारिवारिक मोह (द्वितीय भाग)

प्रथम भाग का शेष...
ब्रह्मचर्य के अनेक विधि-विधान हैं|उदाहरणार्थ,किसी का पिता कितना ही धनी क्यों न हो,एक ब्रह्मचारी अपने गुरु के निर्देशन में प्रशिक्षित होने के लिए उसकी शरण में एक दास की तरह रहता है और एक तुच्छ दास की भांति कार्य करता है|यह कैसे संभव है?हमें इसका वास्तविक अनुभव हो रहा है कि अत्यंत सम्मानित परिवारों के बहुत ही अच्छे बालक यहाँ पर किसी भी तरह का कार्य करने में संकोच नहीँ करते|वे थालियाँ धोते हैं,फर्श साफ करते हैं,वे हर प्रकार का कार्य करते हैं|एक शिष्य की माता को अपने बेटे पर आश्चर्य हुआ,जब वह अपने घर गया|इसके पूर्व वह दूकान तक भी नहीँ जाता था किन्तु अब वह चौबीसों घंटो काम में लगा रहता है|जब तक आनंद की अनुभूति न हो,भला कोई व्यक्ति कृष्णभावनामृत जैसी विधि में क्यों संलग्न होने लगा?यह केवल हरे कृष्ण कीर्तन करने से ही है|यही हरे कृष्ण मंत्र हमारी एकमात्र निधि है|मनुष्य एकमात्र कृष्णभावनामृत से प्रसन्न रह सकता है|वस्तुतः यह आनंदपूर्ण जीवन है|किन्तु बिना प्रिशिक्षित हुए ऐसा जीवन बिताया नहीं जा सकता|
प्रह्लाद महाराज कहते हैं कि हर व्यक्ति पारिवारिक स्नेह से बंधा है|जो व्यक्ति पारिवारिक मामलों में अनुरक्त रहता है वह अपनी इन्द्रियों को वश मे नही कर सकता|स्वभावतः हर व्यक्ति किसी न किसी से प्रेम करना चाहता है|उसे समाज,मैत्री तथा प्रेम की आवश्यकता होती है|ये आत्मा की माँगे हैं किन्तु वे विकृत रूप मे प्रतिबिम्बित हो रही हैं|मैंने देखा है कि आपके देश के अनेक पुरुषों तथा स्त्रियों का कोई पारिवारिक जीवन नहीं है,बल्कि उन्होंने अपना प्रेम कुत्तो-बिल्लियों में स्थापित कर रखा है क्योंकि वे किसी न किसी से प्रेम करना चाहते हैं|किन्तु किसी को उपयुक्त न पाकर अपना बहुमूल्य प्रेम कुत्तो -बिल्लियों को देते है|हमारा कार्य इस प्रेम को ,जिसे कहीं न कहीं स्थापित करना ही है ,कृष्ण कर स्थानांतरित करना |यही कृष्णभावनामृत है|यदि आप अपने प्रेम को कृष्ण पर स्थानांतरित करते है तो यह सिद्धि है|किन्तु आजकल लोगो को हताश किया तथा ठगा जा रहा है अतएव उन्हें इसका ज्ञान नहीं रहता कि वे अपना प्रेम कहाँ स्थापित करें |अतः अंत मे वे कुत्तो-बिल्लियों पर अपना प्रेम स्थापित कर देते हैं|
हर व्यक्ति भौतिक प्रेम से बद्ध है|भौतिक प्रेम में उन्नत व्यक्ति के लिए आध्यात्मिक जीवन विकसित कर पाना बहुत कठिन है क्योंकि प्रेम का यह बंधन अत्यंत बलशाली होता है|इसलिए प्रह्लाद महाराज प्रस्ताव रखते हैं कि मनुष्य को बाल्य-काल से ही कृष्णभावनामृत सीखना चाहिए |जब बालक पाँच-छह वर्ष का हो जाता है-जैसे ही उसकी चेतना विकसित हो जाती है-उसे प्रशिक्षण पाने के लिए पाठशाला भेज दिया जाता है|प्रह्लाद महाराज कहते हैं कि उसकी शिक्षा प्रारम्भ से ही कृष्णभावनामृत होनी चाहिए |पांच से लेकर पंद्रह वर्ष तक की अवधि अत्यंत मूल्यवान होती है|आप किसी भी बालक को कृष्णभावनामृत का प्रशिक्षण दे सकते हैं और वह उसमे सिद्ध हो जायेगा|
जारी...
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Posted by prakash chand thapliyal

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