Tuesday, 4 October 2016

भगवान् की सर्वव्यापकता की अनुभूति (तृतीय भाग)

द्वितीय भाग का शेष..
तत्पश्यात प्रह्लाद महाराज कहते हैं,"यद्यपि उन्हें देखा नही जा सकता तो भी उनकी अनुभूति की जा सकती है|जो बुद्धिमान है वह भगवान की सर्वत्र उपस्थिति की अनुभूति करता है" यह कैसे सम्भव है? दिन के समय कमरे के भीतर रहकर भी यह जाना जा सकता है कि दिन चढ़ गया है|चूँकि कमरे में प्रकाश आ रहा है इसलिए यह समझा जा सकता है कि आकाश में सूर्य चमक रहा है|इसी तरह जिन्होंने परम्परा से पूरा ज्ञान प्राप्त किया है वे जानते हैं कि हर वस्तु भगवान् की शक्ति का प्रसार है|इसलिए वे भगवान का सर्वत्र दर्शन करते हैं|
हम अपनी भौतिक इन्द्रियों से क्या अनुभव करते हैं? जो हमारी भौतिक आँख से दृष्टिगोचर होता है उसे हम देख सकते हैं-जैसे कि पृथ्वी,जल तथा अग्नि|किन्तु हम वायु को नहीं देख सकते ,यद्यपि हम स्पर्श द्वारा उसका अनुभव कर सकते हैं|ध्वनि के द्वारा हम समझ सकते हैं कि आकाश है और सोचने,अनुभव करने,इच्छा करने आदि के कारण हम समझ सकते हैं कि बुद्धि है जो मन का मार्गदर्शन करती कि "मैं चेतना हूँ|" जो व्यक्ति और भी उन्नत है वह समझ सकता है कि चेतना का स्त्रोत आत्मा है और सबके ऊपर परमात्मा है|
हमारे चारों ओर जो वस्तुए दृष्टिगोचर होती हैं ,वे भगवान् की अपार शक्ति का विस्तार हैं किन्तु भगवान् की एक परा या श्रेष्ठ शक्ति भी है जिसे चेतना कहते हैं|इस चेतना को उच्चतर अधिकारियों से समझना होता है किन्तु हम इसका अनुभव प्रत्यक्ष रूप से भी कर सकते हैं कि हमारे पूरे शरीर में चेतना प्रसारित है। यदि मैं अपने शरीर के किसी भी भाग में चुटकी काट दूँ तो मुझे पीड़ा होगी-इसका अर्थ हुआ कि मेरे पूरे शरीर में चेतना है|भगवतगीता में कृष्ण कहते हैं कि हमें यह समझने का प्रयास करना चाहिए कि चेतना पूरे शरीर में फैली हुई है और वह शाश्वत है|इसी तरह इस समूचे ब्रह्माण्ड में चेतना फैली हुई है|लेकिन वह हमारी चेतना नहीं है|वह ईश्वर की चेतना है|इस तरह परमातमा अपनी चेतना के द्वारा सर्वव्यापक हैं |जिसने यह समझ लिया है,समझ लो कि उसने कृष्णभावनामृत का शुभारम्  कर लिया है|
जारी...

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Posted by prakash chand thapliyal

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