प्रथम भाग का शेष..
बद्ध जीव का चौथा दोष है,धोखा देने की प्रवृति|भले ही कोई मूर्ख हो,किन्तु मैं शेखी बघारूँगा कि मैं अत्यंत विद्वान हूँ|मोहग्रस्त तथा भूल करने वाला हर व्यक्ति मूर्ख है तथापि वह अपने को अच्युत प्रकाण्ड विद्वान मानता है|इस तरह सारे बद्ध जीवों की इन्द्रियाँ अपूर्ण होती हैं,सारे बद्ध जीव भूल करते हैं और मोहग्रस्त होते हैं तथा उनमें धोखा देने की प्रवृति होती है|
भला ऐसे जीवो से वास्तविक ज्ञान की आशा किस तरह की जा सकती है?उनसे वास्तविक ज्ञान प्राप्त करने की कोई संभावना नही है|कोई व्यक्ति चाहे वैज्ञानिक हो,दार्शनिक हो या अन्य कुछ,बद्ध होने के कारण वह पूर्ण सूचना नहीं दे पाता वह कितना ही शिक्षित क्यों न हो|यह एक तथ्य है|
तब यह प्रश्न किया जा सकता है कि पूरी सूचना किस तरह प्राप्त की जा सकती है?इसकी विधि यह है कि गुरुओं तथा शिष्यों की परम्परा से,जो कृष्ण से प्रारम्भ होती है,ज्ञान प्राप्त किया जाये|भगवतगीता में भगवान् कृष्ण अर्जुन से कहते है,"मैंने भगवतगीता का यह ज्ञान सर्वप्रथम सूर्यदेव को दिया,सूर्यदेव ने इसे अपने पुत्र मनु को दिया|मनु ने उसे अपने पुत्र इक्ष्वाकु को और इक्ष्वाकु ने उसे अपने पुत्र को दिया|इस तरह से यह ज्ञान हस्तांतरित होता रहा|किन्तु दुर्भाग्यवश यह परम्परा अब विछिन्न हो गई है|इसलिए हे अर्जुन!अब वही ज्ञान मैं तुम्हें प्रदान कर रहा हूँ क्योंकि तुम मेरे परम प्रिय मित्र तथा उत्तम भक्त हो|"यही सम्यक् ज्ञान प्राप्त करने की विधि है|उच्चतर स्त्रोतों से आने वाली दिव्य ध्वनि को ग्रहण करना चाहिए|सम्पूर्ण वैदिक ज्ञान दिव्य ध्वनि है जो भगवान् को समझने में हमारा सहायक है|
अतः प्रहलाद महाराज कहते हैं कि पूर्ण पुरषोतम भगवान् सर्वव्यापक परमात्मा से अभिन्न हैं|यही ज्ञान ब्रह्मसंहिता में भी दिया गया है कि भगवान् अपने दिव्य धाम में स्तिथ रहकर भी सर्वव्यापक हैं|उनके सर्वत्र उपस्थित रहने पर भी हम अपनी अपूर्ण इन्द्रियों के द्वारा उन्हें देख नही पाते|
जारी...
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Posted by prakash chand thapliyal
बद्ध जीव का चौथा दोष है,धोखा देने की प्रवृति|भले ही कोई मूर्ख हो,किन्तु मैं शेखी बघारूँगा कि मैं अत्यंत विद्वान हूँ|मोहग्रस्त तथा भूल करने वाला हर व्यक्ति मूर्ख है तथापि वह अपने को अच्युत प्रकाण्ड विद्वान मानता है|इस तरह सारे बद्ध जीवों की इन्द्रियाँ अपूर्ण होती हैं,सारे बद्ध जीव भूल करते हैं और मोहग्रस्त होते हैं तथा उनमें धोखा देने की प्रवृति होती है|
भला ऐसे जीवो से वास्तविक ज्ञान की आशा किस तरह की जा सकती है?उनसे वास्तविक ज्ञान प्राप्त करने की कोई संभावना नही है|कोई व्यक्ति चाहे वैज्ञानिक हो,दार्शनिक हो या अन्य कुछ,बद्ध होने के कारण वह पूर्ण सूचना नहीं दे पाता वह कितना ही शिक्षित क्यों न हो|यह एक तथ्य है|
तब यह प्रश्न किया जा सकता है कि पूरी सूचना किस तरह प्राप्त की जा सकती है?इसकी विधि यह है कि गुरुओं तथा शिष्यों की परम्परा से,जो कृष्ण से प्रारम्भ होती है,ज्ञान प्राप्त किया जाये|भगवतगीता में भगवान् कृष्ण अर्जुन से कहते है,"मैंने भगवतगीता का यह ज्ञान सर्वप्रथम सूर्यदेव को दिया,सूर्यदेव ने इसे अपने पुत्र मनु को दिया|मनु ने उसे अपने पुत्र इक्ष्वाकु को और इक्ष्वाकु ने उसे अपने पुत्र को दिया|इस तरह से यह ज्ञान हस्तांतरित होता रहा|किन्तु दुर्भाग्यवश यह परम्परा अब विछिन्न हो गई है|इसलिए हे अर्जुन!अब वही ज्ञान मैं तुम्हें प्रदान कर रहा हूँ क्योंकि तुम मेरे परम प्रिय मित्र तथा उत्तम भक्त हो|"यही सम्यक् ज्ञान प्राप्त करने की विधि है|उच्चतर स्त्रोतों से आने वाली दिव्य ध्वनि को ग्रहण करना चाहिए|सम्पूर्ण वैदिक ज्ञान दिव्य ध्वनि है जो भगवान् को समझने में हमारा सहायक है|
अतः प्रहलाद महाराज कहते हैं कि पूर्ण पुरषोतम भगवान् सर्वव्यापक परमात्मा से अभिन्न हैं|यही ज्ञान ब्रह्मसंहिता में भी दिया गया है कि भगवान् अपने दिव्य धाम में स्तिथ रहकर भी सर्वव्यापक हैं|उनके सर्वत्र उपस्थित रहने पर भी हम अपनी अपूर्ण इन्द्रियों के द्वारा उन्हें देख नही पाते|
जारी...
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Posted by prakash chand thapliyal