Monday, 18 July 2016

भगवान् की सर्वव्यापकता की अनुभूति (द्वितीय भाग)

प्रथम भाग का शेष..
बद्ध जीव का चौथा दोष है,धोखा देने की प्रवृति|भले ही कोई मूर्ख हो,किन्तु मैं शेखी बघारूँगा कि मैं अत्यंत विद्वान हूँ|मोहग्रस्त तथा भूल करने वाला हर व्यक्ति मूर्ख है तथापि वह अपने को अच्युत प्रकाण्ड विद्वान मानता है|इस तरह सारे बद्ध जीवों की इन्द्रियाँ अपूर्ण होती हैं,सारे बद्ध जीव भूल करते हैं और मोहग्रस्त होते हैं तथा उनमें धोखा देने की प्रवृति होती है|
भला ऐसे जीवो से वास्तविक ज्ञान की आशा किस तरह की जा सकती है?उनसे वास्तविक ज्ञान प्राप्त करने की कोई संभावना नही है|कोई व्यक्ति चाहे वैज्ञानिक हो,दार्शनिक हो या अन्य कुछ,बद्ध होने के कारण वह पूर्ण सूचना नहीं दे पाता वह कितना ही शिक्षित क्यों न हो|यह एक तथ्य है|
तब यह प्रश्न किया जा सकता है कि पूरी सूचना किस तरह प्राप्त की जा सकती है?इसकी विधि यह है कि गुरुओं तथा शिष्यों की परम्परा से,जो कृष्ण से प्रारम्भ होती है,ज्ञान प्राप्त किया जाये|भगवतगीता में भगवान् कृष्ण अर्जुन से कहते है,"मैंने भगवतगीता का यह ज्ञान सर्वप्रथम सूर्यदेव को दिया,सूर्यदेव ने इसे अपने पुत्र मनु को दिया|मनु ने उसे अपने पुत्र इक्ष्वाकु को और इक्ष्वाकु ने उसे अपने पुत्र को दिया|इस तरह से यह ज्ञान हस्तांतरित होता रहा|किन्तु दुर्भाग्यवश यह परम्परा अब विछिन्न हो गई है|इसलिए हे अर्जुन!अब वही ज्ञान मैं तुम्हें प्रदान कर रहा हूँ क्योंकि तुम मेरे परम प्रिय मित्र तथा उत्तम भक्त हो|"यही सम्यक् ज्ञान प्राप्त करने की विधि है|उच्चतर स्त्रोतों से आने वाली दिव्य ध्वनि को ग्रहण करना चाहिए|सम्पूर्ण वैदिक ज्ञान दिव्य ध्वनि है जो भगवान् को समझने में हमारा सहायक है|
अतः प्रहलाद महाराज कहते हैं कि पूर्ण पुरषोतम भगवान् सर्वव्यापक परमात्मा से अभिन्न हैं|यही ज्ञान ब्रह्मसंहिता में भी दिया गया है कि भगवान् अपने दिव्य धाम में स्तिथ रहकर भी सर्वव्यापक हैं|उनके सर्वत्र उपस्थित रहने पर भी हम अपनी अपूर्ण इन्द्रियों के द्वारा उन्हें देख नही पाते|
जारी...
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भगवान कृष्ण की सर्वव्यापकता की अनुभूति (प्रथम भाग)

प्रह्लाद महाराज ने अपने सहपाठियों को भगवान की सर्वव्यापकता के विषय में सूचना दी|यद्यपि भगवान् अपने विस्तारो तथा अपनी शक्तियो के द्वारा सर्वव्यापी हैं किन्तु इसका यह अर्थ यह नही है कि वे अपना व्यक्तित्व खो चुके हैं|यह महत्वपूर्ण बात है|यद्यपि वे सर्वव्यापी हैं तथापि वे पुरुष हैं|हमारी भौतिक विचारधारा के अनुसार यदि कोई वस्तु सर्वव्यापक होती है तो उसका व्यक्तित्व नहीं होता है,उसका कोई स्थानीकृत पक्ष नहीं रहता|लेकिन ईश्वर ऐसे नहीं है|उदाहरणार्थ,धूप सर्वव्यापी है किन्तु सूर्य का स्थानीय पक्ष सूर्यलोक है जिसे आप देख सकते हैं|इस तरह न केवल सूर्यलोक है अपितु सूर्यलोक के भीतर सूर्यदेव हैं जिनका नाम विवस्वान है|यह ज्ञान हमें वैदिक साहित्य से प्राप्त होता है|अन्य लोको में क्या हो रहा है इसको जानने के लिए हमारे पास प्रमाणिक स्त्रोतो से सुनने के अतिरिक्त कोई अन्य साधन नहीं है|आधुनिक सभ्यता में हम ऐसे विषयो पर वैज्ञानिकों प्रमाण मानते हैं|हम वैज्ञानिकों को यह कहते सुनते हैं,"हम चंद्रमा देख चुके है और यह ऐसा है,वैसा है|"और हम इस पर विश्वास कर लेते हैं|हम किसी वैज्ञानिक के साथ चंद्रमा देखने नहीं गये किन्तु हम उस पर विश्वाश कर लेते हैं|
ज्ञान का मूलाधार विश्वाश है|आप चाहे वैज्ञानिकों पर विश्वाश करे चाहे वेदों पर|यह आप पर निर्भर करता है कि किस स्त्रोत पर आपका विश्वाश है|अंतर इतना ही है कि वेदों से प्राप्त सूचना निर्देश है जबकि वैज्ञानिकों से प्राप्त सूचना सदोष है|वैज्ञानिकों की सूचना सदोष क्यों है?क्योंकि प्रकृति द्वारा बद्ध सामान्य व्यक्ति में चार दोष पाये जाते है|वे दोष कौन-कौन से हैं?पहला दोष है कि बद्ध मानव की इन्द्रियाँ अपूर्ण हैं|हम सूर्य को एक छोटे से गोले के रूप में देखते हैं?क्यों?क्योंकि वह पृथ्वी से बहुत दूर है किन्तु हम उसे एक छोटे गोले के रूप में देखते हैं|हर व्यक्ति जानता है कि हमारी देखने तथा सुनने आदि की शक्तियाँ सीमित हैं|चूँकि इन्द्रियाँ सीमित हैं इसलिए बद्ध जीव निश्चित रूप से भूल कर सकता है चाहे वह कितना भी बड़ा वैज्ञानिक क्यों न हो|अभी बहुत समय नहीं बीता जब इस देश के वैज्ञानिक प्रक्षेपास्त्र छोड़ रहे थे तो एक दुर्घटना हो गई और वह प्रक्षेपास्त्र तुरंत जलकर राख हो गया|इस तरह एक भूल हो गयी|बद्ध जीव भूलें करता रहेगा क्योंकि यह जीव का स्वभाव है|भूल चाहे छोटी हो या बहुत बड़ी किन्तु भौतिक प्रकृति द्वारा बद्ध मनुष्य निश्चित रूप से भूलें करेगा|
यही नहीं,बद्ध जीव मोहग्रस्त होता रहता है|यह तब होता है,जब वह किसी वस्तु को निरंतर दूसरी वस्तु समझता रहता है|उदाहरणार्थ,हम शरीर को स्वयं मान बैठते हैं|चूँकि मैं यह शरीर नहीं हूँ अतः मेरे द्वारा इस शरीर को स्वयं समझना मोह है|सारा संसार इसी मोह में है कि"मैं यह शरीर हूँ",इसलिए शांति नहीं है|मैं अपने कोभारतीय सोचता हूँ,आप अपने को अमरीकी मानते हैं और एक चीनी अपने को चीन का वासी सोचता है|आखिर "भारतीय,""अमरीकी,""चीनी" क्या हैं? यह शरीर पर आधारित मोह ही तो है|यही इसका सार है|
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Saturday, 16 July 2016

मैं कृष्ण से सर्वाधिक प्रेम करता हूँ (द्वितीय भाग/अंतिम भाग)

प्रथम भाग का शेष..
प्रत्येक व्यक्ति का भगवान् कृष्ण से कुछ न कुछ विशेष संबंध होता है जिसे वह भूल चुका है|किन्तु जैसे जैसे हम कृष्ण-भावनाभवित होते जाते हैं,वैसे वैसे कृष्ण के साथ हमारे सबंध की पुरानी चेतना क्रमशः स्पस्ट होती जाती है|और जब हमारी चेतना वास्तव में सुस्पष्ट हो जाती है हो हम कृष्ण के साथ अपने विशेष संबंध को समझ सकते है|कृष्ण के साथ हमारा संबंध पुत्र या दास के रूप में,मित्र के रूप में,माता-पिता के रूप में अथवा प्रेमिका या प्रिय पत्नी के रूप में हो सकता है|ये सारे संबंध इस भौतिक जगत् में विकृत रूप में प्रतिबिम्बित होते हैं|किन्तु कृष्णभावनामृत के पद को प्राप्त करते ही कृष्ण से हमारा पुराना संबंध फिर से जाग्रत हो उठता है|
हममे से हर व्यक्ति प्रेम करता है|सर्वप्रथम मैं अपने शरीर से प्रेम करता हूँ क्योंकि मेरी आत्मा इस शरीर के भीतर है|अतएव मैं अपनी आत्मा को अपने शरीर से बढ़कर प्रेम करता हूँ|किन्तु उस आत्मा का कृष्ण से घनिष्ठ संबंध है क्योंकि आत्मा कृष्ण का ही एक भिन्न अंश है|इसलिए मैं कृष्ण से सर्वाधिक प्रेम करता हूँ और चूँकि कृष्ण सर्वव्यापक हैं अतएव मैं हर वस्तु से प्रेम करता हूँ|
दुर्भाग्यवश हम भूल चुके हैं कि कृष्ण य ईश्वर सर्वव्यापक हैं|इस स्मृति को पुनर्जीवित करना है|अपने कृष्णभावनामृत को पुनर्जीवित करते ही हम हर वस्तु को कृष्ण से संबंधित कर सकेंगे और तब प्रत्येक वस्तु प्रेम करने योग्य हो जायेगी|मैं तुम्हे प्रेम करता हूँ या तुम मुझे प्रेम करते हो किन्तु यह प्रेम इस क्षणभंगुर शरीर के स्तर पर है|किन्तु जब कृष्ण-प्रेम विकसित हो जाता है तो मैं न केवल तुमसे प्रेम करूँगा अपितु मैं हर जीव से प्रेम करूँगा क्योंकि तब बाह्य उपाधि अर्थात् शरीर विस्मृत हो जायेगा|जब कोई व्यक्ति पूर्णतया कृष्ण भावनाभवित हो जाता है हो वह यह नही सोचता कि यह  मनुष्य है,यह पशु है,यह कुत्ता है,यह बिल्ली है,यह कीड़ा है|वह प्रत्येक को कृष्ण के भिन्नाश रूप में देखता है|इसकी सुंदर व्याख्या भगवतगीता में हुई है,"जो वास्तविक कृष्णभावनामृत का ज्ञाता है,वह इस ब्रह्माण्ड में प्रत्येक जीव को प्रेम करता है|"जब तक कोई व्यक्ति कृष्ण भावनाभवित पद पर स्तिथ नहीं हो जाता,तब तक विश्वबंधुत्व का प्रश्न ही नही उठता|
यदि हम वास्तव मे विश्वबंधुत्व के विचार को कार्यान्वित करना चाहते है,तो हमें भौतिक चेतना की अपेक्षा कृष्ण-भावनामृत के पद पर पहुचना होगा| जब तक हम भौतिक चेतना में रहेंगे हमारी प्रेय वस्तुओं की संख्या सीमित होगी किन्तु जब हम वास्तव में कृष्णभावनामृत में होंगे तो हमारे प्रेय सार्वभौम होंगे|प्रह्लाद महाराज यही कहते हैं,"जड़ वृक्षो से लेकर सर्वोच्च सजीव प्राणी ब्रह्मा तक में भगवान् अपने परमात्मा रूप के विस्तार में सर्वत्र उपस्थित हैं|जैसे ही हम कृष्ण भावनाभवित हो जाते हैं,पूर्ण पुरषोत्तम् भगवान के वह विस्तार परमातमा हमें प्रेरित करते हैं कि हम हर वस्तु को कृष्ण से संबंधित जानकर प्रेम करे|"
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Friday, 15 July 2016

मैं कृष्ण से सर्वाधिक प्रेम करता हूँ (प्रथम भाग)

अब प्रह्लाद महाराज भौतिक जीवन की जटिलताओं के विषय में आगे कहते हैं|वे आसक्त गृहस्थ की उपमा रेशम के कीट से देते हैं|रेशम का कीट अपने ही थूक से बनाये गए रेशमकोष में अपने को तब तक लपेटता रहता है,जब तक वह इस रेशमकोष मे बन्दी नहीं हो जाता|वह वहाँ से निकल नहीं सकता|इसी प्रकार भोतिकवादी गृहस्थ का बंधन इतना दृढ़ हो जाता है कि वह पारिवारिक आकर्षण रूपी कोष् से निकल नहीं पता|यद्यपि भौतिकवादी गृहस्थ जीवन में अनेकानेक कष्ट हैं किन्तु वह उनसे छूट नहीं पाता|क्यों? क्योंकि वह सोचता है कि मैथुन-भोग तथा स्वादिस्ट भोजन अत्यंत महत्वपूर्ण हैं|इसलिए अनेकानेक कष्टों के होने पर भी वह उनका परित्याग नहीं कर पता|
इस तरह जब कोई व्यक्ति पारिवारिक जीवन में अत्यधिक फंसा रहता है तो वह अपने जीवन से मुक्ति पाने के विषय में,सोच नहीं पाता|यद्यपि वह भौतिकवादी जीवन के तीन तापों से सदैव विचलित रहता है तथापि प्रबल पारिवारिक स्नेह के कारण वह बाहर नहीं आ पाता|वह यह नहीं जानता कि मात्र पारिवारिक स्नेहवश वह अपनी सीमित आयु को नष्ट कर रहा है|वह उस जीवन को नस्ट कर रहा है जो आत्म-साक्षात्कार के लिए,अपने वास्तविक आध्यात्मिक जीवन की अनुभूति करने के लिए मिला था|
प्रह्लाद महाराज पने आसुरी मित्रों से कहते हैं,"इसलिए तुम लोग उनकी संगति छोड़ दो जो भौतिक भोगों में आसक्त हैं|तुम लोग उन व्यक्तियो की संगति क्यों नही करते जो कृष्णभावनामृत का अनुशीलन कर रहे हैं|"यही उनका उपदेश है|वे अपने मित्रो से कहते हैं कि कृष्णभावनामृत को प्राप्त करना सरल है|क्यों? वस्तुतः कृष्णभावनामृत हमें अत्यंत प्रिय है किन्तु हम उसे भूल चुके हैं|अंतः जो व्यक्ति कृष्णभावनामृत को अंगीकार करता है वह इससे आधिकारिक प्रभावित होता है और अपनी भौतिक चेतना को भूल जाता है|
यदि आप विदेश में हैं तो आप अपने घर को,अपने परिवारजनों को तथा अपने मित्रों को भूल सकते हैं जो आपको अत्यंत प्रिय है|किन्तुव्यदि आपको आचनक उनकी स्मृति हो जाए तो आप तुरंत अभिभूत हो उठेंगे "मैं उनसे कैसे मिल सकूँगा?"इसी प्रकार कृष्ण के प्रति हमारा स्नेह इतना प्रगाढ़ है कि हमे तुरंत ही कृष्ण से अपना संबंध का स्मरण हो जाता है|
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Friday, 8 July 2016

पारिवारिक मोह (पंचम भाग/अंतिम भाग)

चतुर्थ भाग का शेष..
अतएव पारिवारिक जीवन की निंदा नहीं की जाती|किन्तु यदि मनुष्य अपनी आध्यात्मिक पहचान भूल कर सांसारिक व्यापारों में फस जाता है,तो वह दुर्गति को प्राप्त होता है|उसके जीवन का उदेश्य नस्ट हो जाता है|कोई यह सोचता है कि मैं कामवासना से अपने को नही बचा सकता तो उसे चाहिए कि वह विवाह कर ले|इसकी संस्तुति है|लेकिन अवेध मैथुन न किया जाये|यदि कोई व्यक्ति किसी स्त्री को चाहता है या कोई स्त्री किसी पुरुष को चाहती है,तो उन्हें चाहिए कि विवाह करके कृष्णभावनामृत में जीवन बिताये|
जो व्यक्ति बचपन से ही कृष्णभावनामृत में प्रशिक्षित किया जाता है,भौतिक जीवन शैली के प्रति स्वभावतः उसकी रुचि काम हो जाती है और पचास वर्ष की आयु में वह ऐसे जीवन का परित्याग करना शुरू करता है? पति और पत्नी घर छोड़कर  एक साथ तीर्थ यात्रा पर चले जाते हैं|यदि कोई व्यक्ति पच्चीस वर्ष से लेकर पचास वर्ष की आयु तक पारिवारिक जीवन में रहा है,तो तब तक उसकी कुछ संताने अवश्य ही बड़ी हो जाती है|इस तरह पचास वर्ष की आयु में पति अपने पारिवारिक मामले अपने गृहस्थ जीवन बिताने वाले पुत्रो में से किसी को सौंप कर अपनी पत्नी के साथ पारिवारिक बंधनो को भुलाने के लिए किसी तीर्थस्थान की यात्रा पे जा सकता है|जब वह पुरुष पूरी तरह विरक्त हो जाता है,तो वह अपनी पत्नी से अपने पुत्रो के पास वापस चले जाने के लिए कहता है और स्वयं अकेला रह जा है|यही वैदिक प्रणाली है|हमे क्रमशः आध्यात्मिक जीवन में उन्नति करने के लिए अपने आप के अवसर देना चाहिए|अन्यथा यदि हम सारे जीवन भौतिक चेतना में ही बंधे रहे तो हम अपने कृष्ण चेतना में पूर्ण नहीं बन सकेंगे और इस मानव जीवन के सुअवसर को खो देंगे|
तथाकथित सुखी पारिवारिक जीवन का अर्थ है कि हमारी पत्नी तथा हमारी संताने हमे अत्यधिक प्रेम करती है|इस तरह हम जीवन का आनंद उठाते हैं| किन्तु हम यह नही जानते कि यह आनंद य भोग मिथ्या है और मिथ्या आधार पर टिका है|हमें पालक झपकते ही इस भोग को त्यागना पड़ता है|मृत्यु हमारे वश में नहीं है|भगवतगीता से हमे ये सीख मिलती है कि जो व्यक्ति अपनी पत्नी पर ज्यादा आसक्त रहता है तो मरने पर अगले जन्म में उसे स्त्री का शरीर प्राप्त होगा |यदि पत्नी अपने पति पर अत्यधिक अनुरक्त रहती है तो अगले जन्म में उसे पुरुष का शरीर प्राप्त होगा|इसी प्रकार यदि आप पारिवारिक व्यक्ति नही हैं बल्कि कुत्तो-बिल्लियो से अधिक लगाव रखते है तो अगले जीवन में आप कुता य बिल्ली होंगे |ये कर्म अर्थात् भौतिक प्रकृति के नियम हैं|
कहने का तात्पर्य यह है कि मनुष्य को तुरंत ही कृष्णभावनामृत शुरू कर देना चाहिए |माँ लीजिये कि कोई यह सोचता है,"मैं अपना यह खेलकूद का जीवन बिताने के बाद जब बूढ़ा हो जाऊंगा और मेरे पास करने के लिए कुछ नही होगा तो मैं कृष्णभावनामृत संघ में जाकर कुछ सुनूँगा|"निश्चय ही उस समय आध्यात्मिक जीवन बिताया जा सकता है किन्तु इसकी प्रतिभूति कहाँ है कि कोई व्यक्ति वृद्धवस्था तक जीवित रहेगा? मृत्यु किसी भी समय आ सकती है इसलिए आध्यात्मिक जीवन को टालना अत्यंत खतरनाक है|इसलिए मनुष्य को चाहिए कि तत्क्षण कृष्णभावनामृत के सुअवसर का लाभ उठाए|हरे कृष्ण,हरे कृष्ण,कृष्ण कृष्ण,हरे हरे,हरे राम,हरे राम,राम राम,हरे हरे के कीर्तन की विधि से प्रगति द्रुतगति से होती है तथा फल की प्राप्ति तत्काल होती है|
हम उन समस्त देवियों एवम् सज्जनो का आभार प्रकट करते है जो इस साहित्य को पढ़ते है,अनुरोध करेंगे कि घर पे खाली समय में हरे कृष्ण कीर्तन करें और कृष्णभावनामृत में ध्यान लगाये|हमे विश्वास है कि आपको यह विधि अत्यंत सुखकर तथा प्रभावशाली लगेगी|

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Wednesday, 6 July 2016

पारिवारिक मोह (चतुर्थ भाग)

तृतीय भाग का शेष..
प्रह्लाद महाराज कहते हैं कि इस अवस्था में ,जब आप भौतिकवाद में अत्यधिक लीन हों,तो आप कृष्णभावनामृत का अनुशीलन नहीं कर सकते|इसलिए मनुष्य को बालपन से ही कृष्णभावनामृत का अभ्यास करना चाहिए|निस्संदेह चैतन्य महाप्रभु इतने दयालु हैं कि वे कहते हैं,"कभी न करने की अपेक्षा विलंब से करना श्रेष्ठ है" यद्यपि तुम अपने बालपन से ही कृष्णभावनामृत को प्रारम्भ करने का अवसर गवाँ दिया हो,किन्तु तुम जैसी भी स्तिथि में हो वहीं से आरम्भ करो|यही चैतन्य महाप्रभु की शिक्षा है|उन्होंने यह कभी नहीं कहा कि चूँकि तुमने अपने बचपन से कृष्णभावनामृत नहीं शुरू किया इसलिए तुम उन्नति नहीं कर सकते|वे अत्यंत कृपालु हैं|उन्होंने हमें यह उत्तम हरे कृष्ण कीर्तन की विधि प्रदान की है-
हरे कृष्ण,हरे कृष्ण,कृष्ण कृष्ण,हरे हरे,हरे राम,हरे राम,राम राम,हरे हरे|आप चाहे जवान हो या बूढ़े,चाहे आप जो भी हो,बस इसे शुरू कर दें|आप यह नही जानते कि आपका जीवन कब समाप्त हो जायेगा|यदि आप निष्ठापूर्वक क्षणभर के लिए भी कीर्तन करते हैं,तो इनका बहुत प्रभाव पड़ेगा|यह आपको महान् से महान् संकट से,अगले जीवन में पशु बनने से बचा लेगा|
यद्यपि प्रह्लाद महाराज पाँच वर्ष के हैं किन्तु एक अत्यंत अनुभवी तथा शिक्षित व्यक्ति की तरह बोलते हैं क्योंकि उन्होंने अपने गुरु नारद मुनि से ज्ञान प्राप्त किया था|ज्ञान आयु पे निर्भर नही करता है|केवल आयु मे वृद्धि से ही कोई चतुर नहीं बन जाता|ऐसा संभव नहीं है|ज्ञान एक श्रेष्ठ स्त्रोत से ग्रहण करना नहीं होता,तभी मनुष्य बुद्धिमान हो सकता है|इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि कोई पांच वर्ष का बालक है या पचास वर्ष का बूढ़ा|जैसा कि कहा जाता है,"ज्ञान से मनुष्य कम आयु का होने पर भी वृद्ध माना जाता है|"
यद्यपि प्रह्लाद महाराज केवल पाँच वर्ष के थे किन्तु ज्ञान में उन्नत होने के कारण वे अपने सहपाठियों को सम्यक उपदेश दे रहे थे|कुछ लोगों को ये उपदेश अरुचिकर लग सकते हैं|मान लीजिये कोई व्यक्ति विवाहित है और प्रह्लाद का उपदेश है कि,"कृष्णभावनामृत ग्रहण कीजिए|"वह सोचेगा "मैं अपनी पत्नी को कैसे छोड़ सकता हूँ?" हम तो साथ साथ उठते,बैठते,बातें करते और आनंद मानते हैं|भला कैसे छोड़ सकता हूँ? पारिवारिक आकर्षण अत्यंत प्रबल होता है|
वैदिक प्रणाली के अनुसार मनुष्य को पचास वर्ष की आयु में अपना परिवार छोड़ना ही पड़ता है|उसे जाना ही पड़ेगा|इसका कोई दूसरा विकल्प नही है|प्रथम पच्चीस वर्ष विद्यार्थी जीवन के लिए हैं|पांच वर्ष से पच्चीस वर्ष की आयु तक उसे कृष्णभावनामृत की सुचारू रूप से शिक्षा दी जानी चाहिए|मनुष्य की शिक्षा का मूल सिद्धांत कृष्णभावनामृत के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं होना चाहिए|तभी इस लोक में तथा अगले लोक में यह जीवन सुखमय तथा सफल होगा |कृष्ण भावना भावित शिक्षा का अर्थ है कि मनुष्य को पूरी तरह भौतिक चेतना छोड़ने के लिए प्रशिक्षित किया गया है|यही सम्यक कृष्णभावनामृत है|
किन्तु यदि कोई विद्यार्थी कृष्णभावनामृत के सार को ग्रहण नहीं कर पाता तो उसे सुयोग्य पत्नी से विवाह करने और शांतिपूर्ण गृहस्थ जीवन बिताने की अनुमति दी जाती है|चूँकि उसे कृष्णभावनामृत के मूल सिद्धांत का प्रशिक्षण दिया जा चुका होता है इसलिए वह इस भौतिक जगत् में नहीं फसेगा|जो व्यक्ति सादा जीवन बिताता है-सादा जीवन और उच्च विचार-वह पारिवारिक जीवन में भी कृष्णभावनामृत में प्रगति कर सकता है |
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Monday, 4 July 2016

पारिवारिक मोह (तृतीय भाग)

द्वितीय भाग का शेष..
बालक यदि कृष्णभावनामृत में प्रशिक्षित नहीं रहता और उल्टे वह भौतिकवाद में प्रगति कर लेता है,तो उसके लिए आध्यात्मिक जीवन विकसित कर पन कठिन है|यह भौतिकवाद क्या है? भौतिकवाद का अर्थ है कि इस जगत् में हम सभी आत्माएँ होते हुए भी इस जगत का किसी न किसी प्रकार से भोग करना चाहते हैं|आनंद आध्यात्मिक जगत् में कृष्ण से संबंधित अपने शुद्ध रूप में विधमान रहता है|किन्तु हम यहाँ कुलषित सुख का भोग कर रहे है|
भौतिक भोग का मूल सिद्धांत मैथुन है|इसलिए मैथुन न केवल समाज में मिलेगा अपितु बिल्ली-समाज,कुत्ता समाज,पक्षी समाज सभी में मिलेगा|दिन में कबूतर कम से कम बीस बार संभोग करता है यही उसका आनंद है|
श्रीमदभगवतं द्वारा यह पुष्टि होती है कि भौतिक भोग नर तथा नारी के यौन-मिलाप से अधिक किसी अन्य पर आधारित नहीं है|प्रारम्भ में कोई लड़का सोचता है,"वाह!वह लड़की कितनी सुंदर है" और लड़की कहती है कि वह लड़का उत्तम है|जब वे मिलते हैं तो भौतिक कल्मष अधिक प्रगाढ़ हो जाता है|और जब वे संभोग करते हैं,तो वे और अधिक लिप्त हो जाते हैं|कैसे?जैसे ही लड़का तथा लड़की विवाहित हो जाते है,वे एक घर चाहते हैं|फिर उनके बच्चे उत्पन्न होते हैं|जब बच्चे जन्म लेते हैं तो वे सामाजिक मान्यता-समाज ,मैत्री तथा प्रेम चाहते हैं|इस तरह भौतिक आसक्ति बढ़ती जाती है|
इन सभी में धन की आवशयकता होती है|जो व्यक्ति अतीव भौतिकवादी होता है वह किसी को भी ठग सकता है,किसी का भी वध कर सकता है,धन की मांग कर सकता है,उधार ले सकता है या चोरी कर सकता है,कोई भी कार्य जिससे धन प्राप्त हो सके ,कर सकता है|वह जानता है कि उसका घर,उसका परिवार,उसकी पत्नी और बच्चे सर्वदा विधमान नही रहेंगे|वे समुद्र के बुलबुले के समान हैं|जो उत्पन्न होते हैं थोड़ी देर में चले जाते हैं|किन्तु वह अत्यधिक आसक्त रहता है|उसके परिपालन के लिए आवश्यक धन प्राप्त करने के लिए वह अपने आध्यात्मिक विकास की बलि दे देता है|"मैं शरीर हूँ|मैं इस भौतिक जगत का हूँ|मैं इस देश का हूँ,मैं इस जाति का हूँ,मैं इस धर्म का हूँ और मैं इस परिवार से संबंधित हूँ|"यह विकृत चेतना बढ़ती ही जाती है|उसका कृष्णभावनामृत कहाँ है?वह इतनी गहराई तक फस जाता है कि उसके लिए धन अपने जीवन से भी अधिक मूल्यवान बन जाता है|दूसरे शब्दों में वह धन के लिए अपने जीवन को खतरे में डाल सकता है|चाहे कोई गृहस्थ हो या श्रमिक,व्यापारी हो या चोर-डकैत,या धूर्त-हर व्यक्ति धन के पीछे लगा हुआ है|यही मोह है|इस बंधन में वह अपने को विनिष्ट कर देता है|
जारी..
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पारिवारिक मोह (द्वितीय भाग)

प्रथम भाग का शेष...
ब्रह्मचर्य के अनेक विधि-विधान हैं|उदाहरणार्थ,किसी का पिता कितना ही धनी क्यों न हो,एक ब्रह्मचारी अपने गुरु के निर्देशन में प्रशिक्षित होने के लिए उसकी शरण में एक दास की तरह रहता है और एक तुच्छ दास की भांति कार्य करता है|यह कैसे संभव है?हमें इसका वास्तविक अनुभव हो रहा है कि अत्यंत सम्मानित परिवारों के बहुत ही अच्छे बालक यहाँ पर किसी भी तरह का कार्य करने में संकोच नहीँ करते|वे थालियाँ धोते हैं,फर्श साफ करते हैं,वे हर प्रकार का कार्य करते हैं|एक शिष्य की माता को अपने बेटे पर आश्चर्य हुआ,जब वह अपने घर गया|इसके पूर्व वह दूकान तक भी नहीँ जाता था किन्तु अब वह चौबीसों घंटो काम में लगा रहता है|जब तक आनंद की अनुभूति न हो,भला कोई व्यक्ति कृष्णभावनामृत जैसी विधि में क्यों संलग्न होने लगा?यह केवल हरे कृष्ण कीर्तन करने से ही है|यही हरे कृष्ण मंत्र हमारी एकमात्र निधि है|मनुष्य एकमात्र कृष्णभावनामृत से प्रसन्न रह सकता है|वस्तुतः यह आनंदपूर्ण जीवन है|किन्तु बिना प्रिशिक्षित हुए ऐसा जीवन बिताया नहीं जा सकता|
प्रह्लाद महाराज कहते हैं कि हर व्यक्ति पारिवारिक स्नेह से बंधा है|जो व्यक्ति पारिवारिक मामलों में अनुरक्त रहता है वह अपनी इन्द्रियों को वश मे नही कर सकता|स्वभावतः हर व्यक्ति किसी न किसी से प्रेम करना चाहता है|उसे समाज,मैत्री तथा प्रेम की आवश्यकता होती है|ये आत्मा की माँगे हैं किन्तु वे विकृत रूप मे प्रतिबिम्बित हो रही हैं|मैंने देखा है कि आपके देश के अनेक पुरुषों तथा स्त्रियों का कोई पारिवारिक जीवन नहीं है,बल्कि उन्होंने अपना प्रेम कुत्तो-बिल्लियों में स्थापित कर रखा है क्योंकि वे किसी न किसी से प्रेम करना चाहते हैं|किन्तु किसी को उपयुक्त न पाकर अपना बहुमूल्य प्रेम कुत्तो -बिल्लियों को देते है|हमारा कार्य इस प्रेम को ,जिसे कहीं न कहीं स्थापित करना ही है ,कृष्ण कर स्थानांतरित करना |यही कृष्णभावनामृत है|यदि आप अपने प्रेम को कृष्ण पर स्थानांतरित करते है तो यह सिद्धि है|किन्तु आजकल लोगो को हताश किया तथा ठगा जा रहा है अतएव उन्हें इसका ज्ञान नहीं रहता कि वे अपना प्रेम कहाँ स्थापित करें |अतः अंत मे वे कुत्तो-बिल्लियों पर अपना प्रेम स्थापित कर देते हैं|
हर व्यक्ति भौतिक प्रेम से बद्ध है|भौतिक प्रेम में उन्नत व्यक्ति के लिए आध्यात्मिक जीवन विकसित कर पाना बहुत कठिन है क्योंकि प्रेम का यह बंधन अत्यंत बलशाली होता है|इसलिए प्रह्लाद महाराज प्रस्ताव रखते हैं कि मनुष्य को बाल्य-काल से ही कृष्णभावनामृत सीखना चाहिए |जब बालक पाँच-छह वर्ष का हो जाता है-जैसे ही उसकी चेतना विकसित हो जाती है-उसे प्रशिक्षण पाने के लिए पाठशाला भेज दिया जाता है|प्रह्लाद महाराज कहते हैं कि उसकी शिक्षा प्रारम्भ से ही कृष्णभावनामृत होनी चाहिए |पांच से लेकर पंद्रह वर्ष तक की अवधि अत्यंत मूल्यवान होती है|आप किसी भी बालक को कृष्णभावनामृत का प्रशिक्षण दे सकते हैं और वह उसमे सिद्ध हो जायेगा|
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Saturday, 2 July 2016

पारिवारिक मोह (प्रथम भाग)

पारिवारिक मोह

प्रह्लाद महाराज ने अपने मित्रो से कहा, "तुम्हे तुरंत ही कृष्णभावनामृत शुरू कर देना चाहिए|" सारे बालक नास्तिक भौतिकवादी परिवारों में जन्मे थे किन्तु सौभाग्यवश उन्हें प्रह्लाद महाराज की संगति प्राप्त थी जो अपने जन्म से ही भगवान् के महान भक्त थे| जब भी उन्हें अवसर मिलता,और जब अध्यापक कक्षा के बाहर होता तो वे कहा करते , "मित्रों! आओ ,हम कृष्ण कीर्तन करें|यह कृष्णभावनामृत शुरू करने का समय हैं|"
किन्तु जैसा कि हमने अभी कहा ,किसी बालक ने कहा होगा,"किन्तु अभी हम बच्चे हैं|हमें खेलने दीजिये|हम तुरंत मरने वाले नही है,हुमे कुछ आनंद लेने दीजिये|अतः बाद में कृष्णभावनामृत शुरू करेंगे|" लोग यह नही जानते कि कृष्णभावनामृत सर्वोच्च आनंद है|वे सोचते हैं कि जो बालक और बालिकाए इस कृष्णभावनामृत में सम्मलित हुए हैं,वे मूर्ख हैं|"वे प्रभुपाद के प्रभाव से इसमे सम्मिलित हुए हैं और उन्होंने भोगने योग्य अपनी सारी वस्तुए छोड़ दी हैं|" किन्तु वास्तव मैं ऐसा नही है |वे सब बुद्धिमान ,शिक्षित बालक-बालिकाए हैं और अत्यंत सम्मानित परिवारो से आये हैं|वे मूर्ख नही हैं|वे हमारे संघ में सचमुच ही जीवन का आनंद ले रहे हैं अन्यथा इस आंदोलन के लिए वे अपना मूल्यवान समय अर्पित न करते|
वस्तुतः कृष्णभावनामृत में आनंदमय जीवन है लेकिन लोगो को इसका पता नही है|वे कहते है ,"इस कृष्णभावनामृत से क्या लाभ है?" जब मनुष्य इन्द्रियतृप्ति में फसकर बड़ा होता है तो उसमें से निकल पाना बहुत कठिन होता है|इसलिए वैदिक नियमो के अनुसार पाँच वर्ष की अवस्था से ही विद्यार्थी जीवन में बालको को आध्यात्मिक जीवन के विषय में शिक्षा दी जाती हैं|इसे ब्रह्मचर्य कहते हैं|एक ब्रह्मचारी परम चेतना अर्थात कृष्णभावनामृत या ब्रह्म चेतना प्राप्त करने में अपना सारा जीवन अर्पित कर देता|
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