Saturday, 14 May 2016

सर्वाधिक प्रिय पुरुष (अंतिम भाग)

चतुर्थ भाग का शेष....
इस भौतिक जगत् में जीव एक आध्यात्मिक प्राणी है, किन्तु उसमें भोग करने की अर्थात भौतिक शक्ति का शोषण करने की प्रवृति होरी है इसलिए उसे शरीर प्राप्त हुआ है| जीवो की 84,00,000 योनियाँ हैं और हर योनि का प्रथक् शरीर है|शरीर के अनुसार ही उसमे विशिष्ट इन्द्रिया होती हैं जिनसे वे किसी विशेष आनंद का भोग कर सकते हैं |मान लीजिये कि आपको एक कँटीली झाड़ी दे दी जाये और कहा जाय , "देवियो और सज्जनो! यह एक अत्युत्तम भोजन है| यह ऊंटो द्वारा प्रमाणित है|यह अति उत्तम है |" तो क्या आप इसे खाना पसंद करेंगे?"नहीं, आप यह क्या व्यर्थ की वस्तु मुझे दे रहे हैं?" आप कहेंगे, चूँकि आपको ऊँट से भिन्न शरीर मिला हुआ है अतएव आपको कँटीली झाड़िया नही भाती| किन्तु यही झाड़ी ऊँट को दे दी जाये तो वह सोचेगा कि यह तो अत्युत्तम आहार है|
यदि सुअर तथा ऊँट बिना विकट संघर्ष के इन्द्रिय तृप्ति का भोग कर सकते है तो हम मनुष्य क्यों नहीं कर सकते? हम कर सकते हैं किन्तु यह हमारी चरम उपलब्धि नहीं होगी| चाहे कोई सुअर य ऊँट अथवा मनुष्य ,इन्द्रिय तृप्ति भोगने की सुविधाएँ प्रकृति द्वारा प्रदान की जाती हैं |अतएव वे सुविधाएँ जो आपको प्रकृति के नियम द्वारा मिलनी ही हैं उनके लिए आप श्रम क्यों करें? प्रत्येक योनि में शारीरिक माँगो की तुष्टि की व्यवस्था प्रकृति द्वारा की जाती है |इस तृप्ति की व्यवस्था उसी तरह की जाती है जिस तरह दुःख की व्यवस्था की जाती रहती है|क्या आप चाहेंगे की आपको ज्वर चढ़े? नहीं| ज्वर क्यों चढ़ता है? मैं नही जानता|किन्तु यह चढ़ता ही है, है न! क्या आप इसके लिए प्रयास करते है? नहीं| तो यह चढ़ता कैसे है? प्रकृति से|यही एकमात्र उत्तर है|यदि आपका कष्ट प्रकृति द्वारा प्रदत्त है तो आपका सुख भी प्रकृतिजन्य है|इसके विषय मे चिंता न करें|यही प्रहलाद महाराज का आदेश है| यदि आपको बिना प्रयास के ही जीवन मैं कष्ट मिलते हैं,ति सुख भी बिना प्रयास के प्राप्त होगा|
तो इस मनुष्य जीवन का वास्तविक प्रयोजन क्या है? "कृष्णभावनामृत का अनुशीलन|" अन्य सारी वस्तुऍ प्रकृति के नियमो द्वारा, जो अनंततः ईश्वर का नियम है,प्राप्त हो जायेंगी |यदि मैं प्रयास न भी करूँ तो मुझे अपने विगत कर्म तथा शरीर के कारण ,जो भी मिलना है,वह प्रदान किया जायेगा| अतएव आपकी मुख्य चिंता मनुष्य जीवन के उच्चतर लक्ष्य को खोज निकालने की होनी चाहिए🌹🌹🌹🌹
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Posted by prakash chand thapliyal

Wednesday, 11 May 2016

सर्वाधिक प्रिय पुरुष (चतुर्थ भाग)

तृतीय भाग का शेष..
यह आत्मा क्या है? यह आत्मा भगवान् का अंश है| जिस तरह हम हाथ या अंगुली की रक्षा करना चाहते हैं क्योंकि वह पूरे शरीर का अंग है,उसी तरह हम अपने को बचाना चाहते हैं क्योंकि यही भगवान् की रक्षा-विधि है| भगवान् को रक्षा की आवश्यकता नही होती यह तो उनके प्रति हमारे प्रेम की अभिव्यक्ति है जो अब विकृत हो चुकी है| अँगुली तथा हाथ सारे शरीर के हितार्थ काम करने के लिए हैं | जैसे ही मैं चाहता हूँ कि मेरा हाथ यहां आये तो वह तुरंत आ जाता है और जैसे ही मैं चाहता हूँ कि अँगुली मृदंग बजाये,वह बजने लगती है| यह प्राकृतिक स्तिथि है| इसी तरह हम अपनी शक्ति को भगवान् की सेवा में लगाने के लिए उनकी खोज करते हैं किन्तु माया शक्ति के प्रभाव के कारण हम इसे जान नहीँ पाते | यही हमारी भूल है| मनुष्य जीवन में हमे यह सुयोग मिला है कि हम अपनी वास्तविक स्तिथि को समझें | चूँकि आप सभी मनुष्य हैं इसलिए आप सभी कृष्णभावनामृत सीखने यहाँ आये हैं जो कि आपके जीवन का वास्तविक लक्ष्य है|मैं कुत्ते बिल्लियों को यहाँ बैठने के लिए आमंत्रित नही कर सकता | यही अंतर है मनुष्यो और कुत्ते-बिल्लियों में| मनुष्य जीवन के वास्तविक लक्ष्य को प्राप्त करने कि आवश्यकता को समझ सकता है| किन्तु यदि वह इस सुअवसर को खो देता है ,तो इसे महान अनर्थ समझना चाहिए|
प्रह्लाद महाराज कहते हैं,"ईश्वर सर्वाधिक प्रिय व्यक्ति हैं|हमें उनकी खोज करनी चाहिए|"तब जीवन की भौतिक आवश्यकताओं के विषय में क्या होगा? प्रह्लाद महाराज उत्तर देते हैं,"तुम लोग इन्द्रिय तृप्ति के प्रति आसक्त हो किन्तु इन्द्रिय तृप्ति तो इस शरीर के संसर्ग से स्वतः ही प्राप्त हो जाती है|" चूँकि सुअर को एक विशेष प्रकार का शरीर मिला है अतएव उसकी इन्द्रिय तृप्ति मल भक्षण से होती है जो आप सब के लिए घृणित वस्तु है| मल त्याग करने के बाद आप दुर्गंध से बचने के लिए तत्काल ही स्थान त्याग कर देते है लेकिन सुअर प्रतीक्षा करता रहता है|जैसे ही आप मल त्यागेंगे ,वह तुरंत उसका आनंद उठता है| अतएव शरीर के विविध प्रकारो के अनुसार इन्द्रिय तृप्ति भिन्न भिन्न प्रकार की होती है| इन्द्रिय तृप्ति प्रत्येक देहधारी को प्राप्त होती है| ऐसा कभी मत सोचे की मल खाने वाले सुअर दुखी है|नहीं|वे मल भक्षण कर मोटे हो रहे हैं|वे अत्यंत सुखी है|
दूसरा उदाहरण ऊट का है |ऊट कटीली झाड़ियो के प्रति आसक्त होता है| क्यों? क्योंकि जब वह कटीली झाड़िया खाता है तो वो उसकी जीभ काट देती हैं| जिससे उसका रक्त चुने लगता हैं और वह अपने ही रक्त का आस्वादन करता है|तब वह सोचता है,"में आनंद प रहा हूँ|"यह इन्द्रिय तृप्ति है|यौन जीवन भी ऐसा ही है|हम अपने ही रक्त का आस्वादन करते हैं और सोचते है कि हम आनंद लूट रहे हैं|यही हमारी मूर्खता है|
जारी...
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Posted by prakash chand thapliyal

Monday, 9 May 2016

सर्वाधिक प्रिय पुरुष (तृतीय भाग)

द्वितीय भाग का शेष..

भगवतगीता में कृष्ण कहते हैं कि पुण्य कर्मो से मनुष्य सर्वोच्च भौतिक लोक अर्थात ब्रह्मलोक को प्राप्त कर सकता है जहाँ पर जीवन की अवधि करोड़ो वर्ष की है | आप वहाँ की जीवन-अवधि की गणना नही कर सकते, आपका सारा गणित का ज्ञान निष्फल हो जाता है |भगवतगीता मे कहा गया है की ब्रह्मा का जीवन इतना दीर्घ है कि हमारे  4,32,00,00,000 वर्ष उनके बारह घंटो के तुल्य हैं| कृष्ण कहते है,"तुम चींटी से लेकर ब्रह्मा तक कोई भी पद इच्छानुसार प्राप्त कर सकते हो पर वहां पर भी जन्म-मरण की पुनरावृत्ति होगी| किन्तु यदि तुम कृष्णभावनामृत का अभ्यास करके मेरे पास आते हो,तो तुम्हें इस कष्ट-प्रद भौतिक जगत् में पुनः नही आना होगा|"
प्रह्लाद महाराज यही बात कहते है,"हमें अपने सर्वाधिक प्रिय मित्र,परम भगवान् कृष्ण की खोज करनी चाहिए"वे हमारे सर्वाधिक प्रिय मित्र क्यों हैं? वे स्वाभिक रूप से प्रिय है| क्या आपने कभी विचार किया है कि आप किसे सर्वाधिक प्रिय वस्तु मानते हैं? आप स्वयं ही वह सर्वाधिक प्रिय वस्तु हैं| उदाहरणतः मैं यहाँ बैठा हूँ किन्तु यदि आग लगने की चेतावनी दी जाये ,तो मैं तुरंत अपनी रक्षा के विषय में सोचूँगा |मैं सर्वप्रथम सोचूंगा कि मैं अपने आप को किस प्रकार बचा सकता हूँ | तब हम अपने मित्रों और अपने संबंधियो तक को भूल जाते हैं और यही भाव रहता है कि सर्वप्रथम मैं अपने को बचा लूँ | आत्म-रक्षा प्रकृति का सर्वप्रथम नियम है|
स्थूल दृश्टिकोण से आत्मा, "स्वयं" शब्द का अर्थ शरीर है किन्तु सूक्ष्म अर्थ में मन य बुद्धि ही आत्मा है| और वस्तुतः आत्मा का अर्थ आत्मा ही है| स्थूल अवस्था में हम अपने शरीर की रक्षा करने तथा उसे तुष्ट करने में अत्यधिक रुचि लेते हैं किन्तु सूक्ष्मतर अवस्था में मन तथा बुद्धि को तुष्ट करने में रुचि लेते हैं|किन्तु मानसिक तथा बौद्धिक स्तर के ऊपर , जहाँ का वातावरण अध्यतमिक्रत है,हम यह समझ सकते है कि अहं ब्रहास्मि अर्थात् "मैं यह मन, बुद्धि या शरीर नही हूँ- मैं तो आत्मा हूँ - भगवान् का भीन्नाशं|" यही है वास्तविक समझ य ज्ञान का स्तर य पद|
प्रह्लाद महाराज कहते हैं कि समस्त जीवों में से विष्णु परम हितैषी हैं| इसलिए हम सभी उनकी खोज में लगे हैं| जब बालक रोता है,तो वह क्या चाहता है? अपनी माता|किन्तु इसे व्यक्त करने के लिए  उसके पास कोई भाषा नही होती| स्वभावतः उसके पास उसका शरीर है जो उसकी माता के शरीर से उत्पन्न होता है अतएव अपनी माता के शरीर से उसका घनिष्ट संबंध होता हैं| बालक अन्य किसी स्त्री को नही चाहेगा|बालक रोत है किन्तु जब वह स्त्री ,जो बालक की माँ होती है,आती है और उसे गोद में उठा लेती है तो वह बालक शांत हो जाता है| यह सब व्यक्त करने के लिए उसके पास कोई भाषा नही होती किन्तु उसकी माता से उसका संबंध प्रकृति का नियम है| इसी तरह हम स्वाभिक रूप से शरीर की रक्षा करना चाहते है|यह आत्म-संरक्षण हैं| यह जीव का प्राकृतिक नियम है और सोना भी प्राकृतिक नियम है|तो मैं शरीर की रक्षा क्यों करु? क्योकि इस शरीर के भीतर आत्मा है|
जारी...
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Posted by prakash chand thapliyal

Sunday, 8 May 2016

सर्वाधिक प्रिय पुरुष (द्वितीय भाग)

प्रथम भाग का शेष......

यद्यपि मनुष्य का स्वरूप क्षणिक है, फिर भी इस मनुष्य रूप मे आप जीवन की सर्वोच्च सिद्धि प्राप्त कर सकते हैं|वह सिद्धि क्या है? सर्वव्यापक भगवान को जान लेना| अन्य योनियों में यह संभव नही है |चूँकि हम क्रमिक विकास द्वारा यह मनुध्य रूप प्राप्त करते है इसलिए यह दुर्लभ अवसर है | प्रकृति के नियमानुसार आपको अनन्तः मनुष्य शरीर दिया जाता है जिससे आप आध्यात्मिक जीवन को प्राप्त करके भगवद्धाम वापस ज सकें|
जीवन का चरम लक्ष्य पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् विष्णु या कृष्ण हैं | बाद मैं एक श्लोक में प्रह्लाद महाराज कहते हैं, "इस भौतिक जगत् के जो लोग भौतिक शक्ति द्वारा मोहित हो जाते है,वे यह नही जानते की मनुष्य-जीवन का लक्ष्य क्या है? क्यों? क्योकि वे भगवान् की चकाचोंध करने वाली बहिरंगा शक्ति द्वारा मोहित हो चुके हैं| वे भूल चुके हैं कि जीवन तो सिद्धि के चरम लक्ष्य भगवान् विष्णु को समझने के लिए एक सुअवसर है|" विष्णु या ईश्वर को समझने के लिए हमें क्यों अतीव उत्सुक होना चाहिए? प्रह्लाद महाराज कारण समझाते है,"विष्णु सर्वाधिक प्रिय व्यक्ति हैं|हम यह भूल चुके हैं|" हम सब किसी प्रिय मित्र की खोज मैं रहते है- हर व्यक्ति इस प्रकार की खोज करता है|"पुरुष स्त्री के साथ प्रिय मैत्री करना चाहता है और स्त्री पुरुष के साथ मैत्री करना चाहती है| या फिर एक पुरुष अन्य पुरुष को खोजता है और एक स्त्री अन्य स्त्री को खोजती है| हर व्यक्ति किसी न किसी प्रिय,मधुर मित्र की तलाश मे रहता है | ऐसा क्यों? क्योकि हम ऐसे प्रिय मित्र का सहयोग चाहते हैं जो हमारी सहायता कर सके | यह जीवन संघर्ष का अंग है और यह स्वाभाविक है| किन्तु हम यह नही जानते कि हमारे सर्वाधिक प्रिय  मित्र पूर्ण पुरषोतम भगवान् विष्णु हैं|
जिन्होंने भगवदगीता का अध्ययन किया है,उन्हें पांचवे अध्याय में यह उत्तम श्लोक मिला होगा ,"यदि आप शांति चाहते हैं,तो आपको स्पष्ट रूप से यह समझना होगा कि इस लोक की तथा अन्य लोको की हर वस्तु कृष्ण संपत्ति है,वे ही हर वस्तु के भोक्ता हैं एवं वे ही हर एक के परम मित्र हैं| तो फिर तपस्या क्यों की जाये ? ये सारे कार्य भगवान् को प्रसन्न करने के अतिरिक्त और किसी निमिन्त नही है | और जब भगवान् प्रसन्न होते हैं तो आपको फल मिलता है| आप चाहे उच्चतर भौतिक सुख की कामना करते हो य आध्यात्मिक सुख की; आप चाहे इस लोक  में श्रेष्ठतर जीवन बिताना चाहते हों या अन्य लोको में -यदि आप भगवान् को प्रसन्न कर लेते हैं तो आप उनसे मनवांछित फल प्राप्त कर सकेंगे | इसलिए वे अत्यंत निष्ठावान मित्र हैं| किन्तु बुद्धिमान व्यक्ति ऐसी कोई वस्तु नही चाहता जो भौतिक रूप से कुलषित हो|
जारी...........
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Posted by prakash chand thapliyal

Tuesday, 3 May 2016

सर्वाधिक प्रिय पुरुष (प्रथम भाग)

आज मैं आपलोगों को एक बालक भक्त की कथा सुनाऊँगा जिनका नाम प्रह्लाद महाराज था! वे घोर नास्तिक परिवार मे जन्मे थे!
इस संसार मे दो प्रकार के मनुष्य है - असुर तथा देवता!उनमे अंतर क्या है? मुख्य अंतर यह है कि देवतागण भगवान के प्रति अनुरक्त रहते है जबकि असुरगण नास्तिक होते है ! वे ईश्वर मे इसलिये विश्वास नही करते, क्योंकि वे भौतिकवादी होते हैं ! मनुष्यो की ये दोनो श्रेणियां इस संसार मे सदैव विद्यमान रहती हैं |
कलियुग (कलह का युग) होने से सम्प्रति असुरो की संख्या बढ़ी हुई है किन्तु यह वर्गीकरण  सृष्टी के प्राराम्भ से चला आ रहा है। आपलोगो से मैं जिस घटना का वर्णन करने ज रहा हूँ वह सृष्टी के कुछ लाख वर्षो बाद घटी ।

प्रहलाद महाराज सर्वाधिक नास्तिक एवं भौतिक रूप से सर्वाधिक  शक्तिशाली व्यक्ति के पुत्र थे । चूँकि उस समय का समाज भौतिकवादी था अतैव इस बालक का भगवान के यशोगान का अवसर ही नही मिलता था । महात्मा का लक्षण् यह होता है की भगवान की महिमा का प्रसार करने के लिए अत्यधिक उत्सुक रहता था ।

जब प्रह्लाद महाराज पाँच वर्ष के बालक थे ,  तो उन्हें पाठशाला भेजा  गया  । जैसे ही मनोरंजन का अंतराल आता और शिक्षक बाहर चला जाता वे अपने मित्रो से कहते मित्रो!आओ। हम कृष्णभावनामृत  के विषय  मे चर्चा करे ।"

यह दृश्य श्रीमदभगवतं क्व सप्तम स्कंध के छठे अध्याय मे वर्णित है ।भक्त प्रह्लाद कहते है , "मित्रो !
यह बाल्यावस्था ही कृषण्भावनामृत अनुशीलन करने का उचित समय है  ।"और उनके बालमित्र उत्तर देते है ,
" ओह ! हम तो खेलेंगे | हम कृष्ण -भावनामृत क्यों ग्रहण करे?" प्रतिउत्तर मे प्रह्लाद महाराज कहते है, "यदि तुम लोग बुद्धिमान हो, तो बाल्यावस्था से ही भागवत धर्म प्रारम्भ करो |"

श्रीमदभगवतं भागवत-धर्म प्रस्तुत करता है अर्थात यह ईश्वर विषयक वैज्ञानिक ज्ञान तक ले जाता है | भागवत का अर्थ है, "पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्" और धर्म का अर्थ है, "विधि-विधान |" यह मानव जीवन अति दुर्लभ है | यह एक महान सुयोग है | इसलिए प्रह्लाद कहते हैं "मित्रो ! तुम लोग सभ्य मनुष्यों के रूप मे उत्पन्न हुए हो, अतः तुम्हारा ये मनुष्य शरीर क्षणभंगुर होते हुए भी महानतम सुयोग है |" कोई भी व्यक्ति अपनी जीवन अवधि नही जानता | ऐसी गणना की जाती है कि इस युग मे मनुष्य-शरीर पाँच सौ वर्षो तक जीवित रह सकता है | किन्तु जैसे जैसे कलयुग आगे बढ़ता जाता है, जीवन की अवधि,स्मृति,दया,धार्मिकता तथा अन्य ऐसी ही विभूतियाँ घटती जाती है | अतएव इस युग मे दीर्घायु अनिश्चित है |
जारी...............
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Posted by prakash chand thapliyal