तृतीय भाग का शेष..
अपनी चेतना को कृष्णभावनामृत से युक्त करना हमारी विधि है और यह हमें पूर्णता प्रदान करेगी। ऐसा नही है कि उस चेतना में हमारा विलय हो जायेगा। एक तरह से हम लीन हो जाते हैं तथापि हम अपना व्यस्टित्व बनाये रखते हैं। निविर्शेषवादी दार्शनिक कहते हैं कि सिद्धि का अर्थ है ब्रह्मा में लीन होना और अपने व्याष्टित्व को खो देना। हम कहते हैं कि सिद्धि अवस्था में हम ब्रह्म में लीन हो जाते हैं लेकिन हम अपने व्यष्टित्व को बनाये रखते हैं।ऐसा किस तरह हो सकता है? एक हवाई जहाज हवाई अड्डे से उड़ान भरने के बाद उप्पर उठ जाता है और जब वह बहुत उप्पर चला जाता है तो हम उसे देख नही पाते , तब हमे केवल आकाश दिखता है। किन्तु यह जहाज़ खोता नहीं,तब भी रहता है। इसी तरह से एक विशाल हरे वृक्ष पर बैठता हुआ हरा पक्षी। हम पक्षी तथा वृक्ष में अंतर नही कर पाते किन्तु दोनो का अस्तित्व बना रहता है। इसी तरह से परम चेतना कृष्ण है और जब हम अपनी चेतना को ब्रह्म से जोड़ते हैं तो हम पूर्ण बनते है किन्तु हमारा व्यष्टित्व बना रहता है। एक बाह्रा व्यक्ति यह सोच सकता है कि ईश्वर तथा उनके शुद्ध भक्त में कोई अंतर नही है किन्तु यह अल्प ज्ञान के कारण होता है। हर व्यक्ति,हर प्राणी अपने व्यष्टित्व को शाश्वत रूप से बनाये रखता है भले ही वह ब्रह्म से युक्त क्यों न हो गया हो ।
प्रह्लाद महाराज कहते हैं कि हम चेतना को - चाहे वह परम चेतना हो या व्यष्टि चेतना-देख नहीं सकते किन्तु वह विद्यमान रहती है। तो हम कैसे समझे कि चेतना विद्यमान है?हम परम चेतना तथा अपनी निजी चेतना को आनंदमयता की अनुभूति द्वारा सरलता से समझ सकते हैं। चूंकि हममे चेतना हैं इसलिए हम आनंद का अनुभव कर सकते है। चेतना के बिना आनंद की अनुभूति नहीं हो सकती। चेतना के अनुसार ही हम अपनी इन्द्रियों का इच्छानुसार प्रयोग करके जीवन का आनंद उठा सकते हैं। किंतु जैसे ही शरीर से चेतना निकल जाती है,हम इन्द्रियों का भोग नही कर पाते |
हमारी चेतना का अस्तित्व इसलिए है क्योंकि हम चेतना के भिन्नाश हैं। उदाहरणार्थ ,एक चिंगारी ,अग्नि का एक लघु रूप है तथापि वह अग्नि है। अटलांटिक सागर की एक जल की बूंद में जल का वही गुण रहता है जो समस्त सागरों के जल में है अर्थात वह भी खारी है। इसी तरह से भगवान में ह्लादिनी शक्ति होने के कारण हम भी आनंद का भोग कर सकते हैं। चूंकि भगवान् परमेश्वर या परम नियामक हैं अतः हम भी ईश्वर या नियामक हैं। उदाहरणार्थ ,जब मुझे खांसी आती है हो में पानी पी सकता हूँ। यह मेरी नियामक शक्ति है।हममे से प्रत्येक में यह नियामक शक्ति अपनी अपनी क्षमता के अनुसार पायी जाती है। लेकिन हम परम नियामक नही है। परम नियामक तो कृष्ण हैं।
चूंकि कृष्ण परम नियामक हैं अतएव वे अपनी विभिन्न शक्तियों के द्वारा विश्व के सभी कार्यो का नियमन कर सकते हैं। मैं भी अनुभव करता हूँ कि कुछ हद तक में अपने शरीर के कार्यो का नियमन कर रहा हूँ किन्तु परम नियामक न होने से यदि इस शरीर में कोई दोष आ जाता है तो मुझे वैध के पास जाना पड़ता है। इसी तरह से अन्य शरीरों के उप्पर भी मेरा कोई नियंत्रण नही है। मैं इस हाथ को अपना हाथ कहता हूँ क्योंकि मैं इससे कार्य कर सकता हूँ और इच्छानुसार इसे हिला डुला सकता हूँ लेकिन मैं आपके हाथ का नियामक नही हूँ। वह तो आपके वश मैं है आप चाहे तो अपना हाथ हिला-डुला सकते हैं। इसलिए मैं आपके शरीर का नियामक नही हूँ,न ही आप मेरे शरीर के नियामक हैं किन्तु परमात्मा आपके शरीर के,मेरे शरीर के तथा हर एक के शरीर के नियामक हैं।
भगवतगीता में भगवान् कहते हैं कि तुम अर्थात आत्मा अपने शरीर में उपस्थित हो और तुम्हारा शरीर कर्मो का क्षेत्र है। इसलिए आप जो भी कर्म करते है,वह आपके शरीर के क्षेत्र द्वारा परिसीमित है। एक भूभाग में बंधा पशु उस क्षेत्र में विचरण कर सकता है किन्तु वहाँ से बाहर नहीं जा सकता। इसी आह से आपका कर्म तथा मेरा कर्म हमारे शरीर की सीमाओ के अंदर बंधा हैं। किन्तु क्रिअहन कहते है,"में प्रत्येक क्षेत्र में उपस्थित रहता हूँ।"इस तरह परमात्मा होने के कारण कृष्ण जानते हैं कि मेरे शरीर मे , आपके शरीर मे तथा अन्य लाखों-करोड़ो शरीरो में क्या हो रहा है। इसलिए वे परम नियामक हैं। हमारी शक्ति सीमित है किन्तु उनकी शक्ति असीमित है।उनकी नियामक शक्ति से , उनकी परम इच्छा से , यह भौतिक सृष्टि संचालित है। इसकी पुष्टि भी भगवतगीता से होती है जहाँ कृष्ण यह कहते है,"सम्पूर्ण भौतिक प्रकृति मेरे अधीक्षण में कार्य करती है। तुम इस जगत में जितनी भी अद्भुत वस्तुए देख रहे हो,वे मेरे अधीक्षण-मेरे परम नियंत्रण-के कारण है"।
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Posted by prakash chand thapliyal
अपनी चेतना को कृष्णभावनामृत से युक्त करना हमारी विधि है और यह हमें पूर्णता प्रदान करेगी। ऐसा नही है कि उस चेतना में हमारा विलय हो जायेगा। एक तरह से हम लीन हो जाते हैं तथापि हम अपना व्यस्टित्व बनाये रखते हैं। निविर्शेषवादी दार्शनिक कहते हैं कि सिद्धि का अर्थ है ब्रह्मा में लीन होना और अपने व्याष्टित्व को खो देना। हम कहते हैं कि सिद्धि अवस्था में हम ब्रह्म में लीन हो जाते हैं लेकिन हम अपने व्यष्टित्व को बनाये रखते हैं।ऐसा किस तरह हो सकता है? एक हवाई जहाज हवाई अड्डे से उड़ान भरने के बाद उप्पर उठ जाता है और जब वह बहुत उप्पर चला जाता है तो हम उसे देख नही पाते , तब हमे केवल आकाश दिखता है। किन्तु यह जहाज़ खोता नहीं,तब भी रहता है। इसी तरह से एक विशाल हरे वृक्ष पर बैठता हुआ हरा पक्षी। हम पक्षी तथा वृक्ष में अंतर नही कर पाते किन्तु दोनो का अस्तित्व बना रहता है। इसी तरह से परम चेतना कृष्ण है और जब हम अपनी चेतना को ब्रह्म से जोड़ते हैं तो हम पूर्ण बनते है किन्तु हमारा व्यष्टित्व बना रहता है। एक बाह्रा व्यक्ति यह सोच सकता है कि ईश्वर तथा उनके शुद्ध भक्त में कोई अंतर नही है किन्तु यह अल्प ज्ञान के कारण होता है। हर व्यक्ति,हर प्राणी अपने व्यष्टित्व को शाश्वत रूप से बनाये रखता है भले ही वह ब्रह्म से युक्त क्यों न हो गया हो ।
प्रह्लाद महाराज कहते हैं कि हम चेतना को - चाहे वह परम चेतना हो या व्यष्टि चेतना-देख नहीं सकते किन्तु वह विद्यमान रहती है। तो हम कैसे समझे कि चेतना विद्यमान है?हम परम चेतना तथा अपनी निजी चेतना को आनंदमयता की अनुभूति द्वारा सरलता से समझ सकते हैं। चूंकि हममे चेतना हैं इसलिए हम आनंद का अनुभव कर सकते है। चेतना के बिना आनंद की अनुभूति नहीं हो सकती। चेतना के अनुसार ही हम अपनी इन्द्रियों का इच्छानुसार प्रयोग करके जीवन का आनंद उठा सकते हैं। किंतु जैसे ही शरीर से चेतना निकल जाती है,हम इन्द्रियों का भोग नही कर पाते |
हमारी चेतना का अस्तित्व इसलिए है क्योंकि हम चेतना के भिन्नाश हैं। उदाहरणार्थ ,एक चिंगारी ,अग्नि का एक लघु रूप है तथापि वह अग्नि है। अटलांटिक सागर की एक जल की बूंद में जल का वही गुण रहता है जो समस्त सागरों के जल में है अर्थात वह भी खारी है। इसी तरह से भगवान में ह्लादिनी शक्ति होने के कारण हम भी आनंद का भोग कर सकते हैं। चूंकि भगवान् परमेश्वर या परम नियामक हैं अतः हम भी ईश्वर या नियामक हैं। उदाहरणार्थ ,जब मुझे खांसी आती है हो में पानी पी सकता हूँ। यह मेरी नियामक शक्ति है।हममे से प्रत्येक में यह नियामक शक्ति अपनी अपनी क्षमता के अनुसार पायी जाती है। लेकिन हम परम नियामक नही है। परम नियामक तो कृष्ण हैं।
चूंकि कृष्ण परम नियामक हैं अतएव वे अपनी विभिन्न शक्तियों के द्वारा विश्व के सभी कार्यो का नियमन कर सकते हैं। मैं भी अनुभव करता हूँ कि कुछ हद तक में अपने शरीर के कार्यो का नियमन कर रहा हूँ किन्तु परम नियामक न होने से यदि इस शरीर में कोई दोष आ जाता है तो मुझे वैध के पास जाना पड़ता है। इसी तरह से अन्य शरीरों के उप्पर भी मेरा कोई नियंत्रण नही है। मैं इस हाथ को अपना हाथ कहता हूँ क्योंकि मैं इससे कार्य कर सकता हूँ और इच्छानुसार इसे हिला डुला सकता हूँ लेकिन मैं आपके हाथ का नियामक नही हूँ। वह तो आपके वश मैं है आप चाहे तो अपना हाथ हिला-डुला सकते हैं। इसलिए मैं आपके शरीर का नियामक नही हूँ,न ही आप मेरे शरीर के नियामक हैं किन्तु परमात्मा आपके शरीर के,मेरे शरीर के तथा हर एक के शरीर के नियामक हैं।
भगवतगीता में भगवान् कहते हैं कि तुम अर्थात आत्मा अपने शरीर में उपस्थित हो और तुम्हारा शरीर कर्मो का क्षेत्र है। इसलिए आप जो भी कर्म करते है,वह आपके शरीर के क्षेत्र द्वारा परिसीमित है। एक भूभाग में बंधा पशु उस क्षेत्र में विचरण कर सकता है किन्तु वहाँ से बाहर नहीं जा सकता। इसी आह से आपका कर्म तथा मेरा कर्म हमारे शरीर की सीमाओ के अंदर बंधा हैं। किन्तु क्रिअहन कहते है,"में प्रत्येक क्षेत्र में उपस्थित रहता हूँ।"इस तरह परमात्मा होने के कारण कृष्ण जानते हैं कि मेरे शरीर मे , आपके शरीर मे तथा अन्य लाखों-करोड़ो शरीरो में क्या हो रहा है। इसलिए वे परम नियामक हैं। हमारी शक्ति सीमित है किन्तु उनकी शक्ति असीमित है।उनकी नियामक शक्ति से , उनकी परम इच्छा से , यह भौतिक सृष्टि संचालित है। इसकी पुष्टि भी भगवतगीता से होती है जहाँ कृष्ण यह कहते है,"सम्पूर्ण भौतिक प्रकृति मेरे अधीक्षण में कार्य करती है। तुम इस जगत में जितनी भी अद्भुत वस्तुए देख रहे हो,वे मेरे अधीक्षण-मेरे परम नियंत्रण-के कारण है"।
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Posted by prakash chand thapliyal