Friday, 16 December 2016

कृष्णभावनामृत : दया की पूर्णता

अब प्रहलाद महाराज अपना निष्कर्ष सुनाते है, "हे मित्रों! चूँकि भगवान सर्वत्र उपस्थित हैं और चूँकि हम भगवान के भिन्नअंश है ,इसलिए हमारा कर्तव्य है कि हम समस्त जीवों पर दयालु हों।"जब कोई व्यक्ति निम्नतर पद पर होता है तो उसकी सहायता करना हमारा कर्तव्य है। उदाहरणार्थ , चूँकि शिशु असहाय होता है अतएव वह अपने मातापिता की दया पे आश्रित होता है, वह कहता है, "माँ! मुझे यह वस्तु चाहिए" और माता कहती है,"हां बेटे! दे रही हूँ।" हमें हर जीव पर दयालु होना चाहिए और उन पर दया दर्शानी चाहिए।
हम किस तरह सभी पर अपनी दया दिखलाये? संसार मे करोड़ो दीन-दुखियारे हैं, तो हम सब पर किस प्रकार दया का प्रदर्शन करें? क्या हम संसार के सभी अभावग्रस्त लोगो को वस्त्र और भोजन दे सकते हैं? ऐसा संभव नहीं है। तो हर जीव पर हम किस प्रकार दयालु हों? उन्हें कृष्णभावनामृत प्रदान कर के। प्रह्लाद महाराज इसी विधि से अपने सहपाठियो पर वास्तविक दया का प्रदर्शन कर रहे हैं। वे सब के सब मुर्ख थे,कृष्णभावनामृत से विहीन । इसलिए प्रह्लाद महाराज उन्हें कृष्णभावनाभवित होने का मार्ग दिखला रहे थे। यही सर्वोच्च दया हैं, यदि आप समस्त जीवों पर तनिक भी दया करना चाहते हैं, तो उन्हें कृष्णभवनामृत का प्रकाश दीजिये जैसा प्रह्लाद महाराज ने किया।अन्यथा भौतिक दृस्टि से दया दिखा पाना आपकी शक्ति से परे है।
प्रह्लाद महाराज कहते हैं, मित्रों! अपना यह आसुरी जीवन छोड़ दो। इस मूढ़ता को त्याग दो । यह धारणा की ईश्वर नहीं है, प्रह्लाद महाराज अपने मित्रों को इस आसुरी विचार को त्यागने को कहते है। चूँकि प्रह्लाद महाराज के मित्रगण असुर परिवारों में जन्मे थे और आसुरी शिक्षकों से शिक्षा पा रहे थे इसलिए वे सोचते थे, "ईश्वर कौन है? ईश्वर नहीं है।" हम भगवतगीता में पाते हैं कि इस प्रवृत्ति के लोग दुष्ट कहलाते हैं क्योंकि वे सदैव दुष्टता पर तुले रहते है। भले ही वे शिक्षित क्यों न हो किन्तु उनकी योजना ठगने की रहती है। हमें इसका व्यावहारिक अनुभव है। ये लोग उच्च शिक्षा से योग्य होते है और अनेक योग्यताओ से युक्त होते है। ये सुन्दर वेशभूषा भी धारण करते हैं किंतु इनकी मनोवृति निम्न होती है। वे सोचते हैं, "इस व्यक्ति के पास कुछ धन है अतः षड़यंत्र करके इसे ठग लिया जाए।" वे निरे दुष्ट हैं।
वे किस लिए ठगते है ? मात्र इंद्रियतृप्ति के लिए, ठीक उसी तरह जिस तरह कि जीवन का लक्ष्य न जानने वाला एक गधा । धोभी गधे को पालता है और उसकी पीठ पर भरी बोझ लादता है। इसी तरह यह गधा इस गठरी को दिनभर इसलिए लादे रखता है कि उसे थोड़ी घास मिल जायेगी। इसी तरह के भौतिकवादी लोग केवल तुच्छ इंद्रियतृप्ति के लिए कठोर श्रम करते है। इसलिए उनकी उपमा गधो से दी जाती है। वे सदैव किसी न किसी दुष्टता की योजना बनाये रहते हैं। वे मानव जाति में सबसे निम्न होते हैं क्योंकि उन्हें ईश्वर मैं विश्वाश नहीं है। क्यों? क्योंकि उनका ज्ञान भौतिक शक्ति (माया) द्वारा हर लिया गया है। चूँकि वे ईश्वर के अस्तित्व को नकारते है इसलिए मोह उन्हें प्रेरित करता है "सचमुच ही ईश्वर नहीं है। कठिन श्रम करो और पाप करो जिससे नरक जा सको।"
प्रह्लाद महाराज अपने आसुरी मित्रो से अनुरोध करते हैं कि वे यह विचार त्याग दे कि भगवान नहीं हैं। यदि हम इस व्यर्थ के विचार को त्याग दें तो हमारी अनुभूति से परे रहने वाले परमेश्वर प्रसन्न हो जायेंगे और हम पर दया करेंगे।
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Posted by prakash chand thapliyal