Sunday, 26 June 2016

हम अपना जीवन नस्ट कर रहे हैं ( द्वितीय भाग/अंतिम भाग)

यदि आप उन कृष्ण कर पूर्णतया आश्रित हैं ,जो कुत्तो,पक्षियों और पशुओ को -84,00,000 योनियों के जीवों को- भोजन प्रदान करते हैं, तो फिर वे आपको भोजन क्यों नहीं देंगे? यह धरना समर्पण का लक्षण है |किन्तु हुमें यह नही सोचना चाहिए कि कृष्ण मुझे भोजन दे रहे हैं अतः मैं अब सो जाऊंगा|आपको बिना भय के कार्य करना है|आपको कृष्ण के लालन-पालन तथा संरक्षण पर पूर्ण विश्वास रखते हुए कृष्णभावनामृत में पूरी तरह से लग जाना चाहिए|
आइये ,हम अपनी आयु की गणना करें |इस युग में ऐसा कहा जाता है कि हम अधिक से अधिक एक सौ वर्ष तक जीवित रह सकते हैं |पहले सत्य-युग में ,सत्वगुण के युग में लोग 1 लाख वर्षो तक जीवित रहते थे|अगले युग त्रेता में वे 10 हज़ार वर्षो तक जीते थे और उसके बाद वाले युग ,द्वापर में 1 हज़ार वर्षो तक|अब इस कलियुग में यह अनुमान 100 वर्ष का है|किन्तु जैसे जैसे कलियुग अग्रसर होगा,हमारी आयु और भी घटती जायेगी|यह हमारी आधुनिक सभ्यता की तथाकथित उन्नति है|हुमें इसका बड़ा गर्व रहता है की हम सुखी हैं और अपनी सभ्यता में सुधार ला रहे हैं|किन्तु इसका परिणाम यह है कि हम भौतिक जीवन का भोग करने का प्रयास तो करते हैं किन्तु हमारी आयु कम होती जा रही है|
यदि हम यह मान लें कि मनुष्य एक सौ वर्षो तक जीवित रहता है और यदि उसे आध्यात्मिक जीवन का कोई ज्ञान नहीं है,तो उसका आधा जीवन रात में सोने तथा संभोग करने में बीत जाता है|उसकी रुचि अन्य किसी कार्य में नहीं रहती|और दिन के समय वह क्या करता है?"धन कहाँ हैं?धन कहाँ है? मुझे इस शरीर को बनाये रखना है|" और जब उसके पास धन आ जाता है,तो वह कहता है कि क्यों न मैं इसका उपयोग अपनी पत्नी और बच्चों के लिए करूँ? तो फिर उसकी आध्यात्मिकता अनुभूति कहाँ रही? रात में वह अपना समय सोने मे तथा संभोग करने में बिताता है और दिन में धन अर्जित करने के लिए वह कठोर श्रम में समय बिताता है|क्या जीवन में उसका यही उद्देश्य है? ऐसा जीवन कितना भयावह है!
साधारण व्यक्ति बालपन में भ्रमित रहता है और निरर्थक खेल खेलता है|आप बीस वर्षो तक इसी तरह करते रह सकते हैं|तत्पश्चात जब आप वृद्ध होते हैं,तो फिर से बीस वर्षो तक कुछ नही कर सकते|जब व्यक्ति वृद्ध हो जाता है,तो उसकी इन्द्रिय काम नही कर सकती |आपने अनेक वृद्ध व्यक्तियो को देखा होगा; वे विश्राम करने के अतिरिक्त कुछ नही कर सकते |अतः वृद्धवस्था में अस्सी वर्ष की आयु होते ही सारा काम ठप्प हो जाता है|इसलिए प्रारम्भ से लेकर बीस वर्ष की आयु तक सारे के सारे का समय नस्ट हो जाता है और यदि आप एक सौ वर्ष तक जीवित भी रहें,तो जीवन की अंतिम अवस्था के बीस वर्ष भी नस्ट हो जाते हैं| इस तरह आपके जीवन के चालीस वर्ष ऐसे ही नस्ट हो जाते हैं|बीच की आयु में यौन-क्षुधा इतनी प्रबल होती है कि इसमे भी बीस वर्ष नस्ट हो जाते हैं|इस तरह बीस,फिर बीस,तब बीस कुल साठ वर्ष नस्ट हो जाते हैं|जीवन का यह विश्लेषण प्रह्लाद महाराज द्वारा दिया गया है|हम अपने जीवन को कृष्णभावनामृत में उन्नति करने में न लगाकर उसे चौपट कर रहे हैं|
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Posted by prakash chand thapliyal

Saturday, 4 June 2016

हम अपना जीवन नष्ट कर रहे हैं (प्रथम भाग)

अतएव हमें अपनी इंद्रियों को भौतिक सुख बढ़ाने के लिए प्रेरित करने के इक्छुक न बनकर कृष्णभावनामृत का अभ्यास करके आध्यात्मिक सुख पाने का प्रयास करना चाहिए |जैसा प्रह्लाद महाराज कहते हैं,"यद्यपि इस मानव शरीर में तुम्हारा जीवन क्षणिक है किन्तु है अत्यंत मूल्यवान| अतएव अपने भौतिक इंद्रियभोग को बढ़ाने का प्रयास करने की अपेक्षा तुम्हारा कर्तव्य यह है कि अपने कार्यो को किसी न किसी तरह कृष्णभावनामृत से जोड़ो|"
मनुष्य शरीर से ही उच्चतर बुद्धि आती है|चूँकि हुमें उच्चतर चेतना मिली है इसलिए जीवन में हुमें उच्चतर आनंद के लिए प्रयत्न करना चाहिए-यह आधयत्मिक आनंद है|इस आध्यात्मिक आनंद को कैसे प्राप्त किया ज सकता है? मनुष्य को चाहिए कि भगवान् की सेवा मे लीन रहे क्योंकि वे ही मुक्ति रूपी आनंद प्रदान करने वाले हैं|हमें ध्यान कृष्ण के चरणकमलों को प्राप्त करने में लगाना चाहिए जो हमारा इस भौतिक जगत् से उद्धार करने वाले हैं|
किन्तु क्या हम इस जीवन में भोग नहीँ कर सकते और अगले जीवन में कृष्ण की सेवा में अपने को नहीं लगा सकते ? प्रह्लाद महाराज का उत्तर है,"अभी हम भौतिक बंधन में हैं|इस समय मुझे यह शरीर मिला है किन्तु कुछ वर्षो बाद मैं यह शरीर त्याग कर अन्य शरीर धारण करने के लिए बाध्य होऊंगा| एक बार एक शरीर पा लेने पर तथा अपने शरीर की इन्द्रियों के आदेशानुसार भोग करने पर हम ऐसी इन्द्रिय तृप्ति से दूसरे शरीर को तैयार करते हैं और यह दूसरा शरीर अपनी इच्छा के अनुसार प्राप्त होता है|" इसकी कोई प्रितिभुति नहीं है की आपको मनुष्य शरीर ही मिले|यह तो आपके कर्म पर निर्भर करेगा|यदि आप एक देवता की तरह कर्म करेंगे,तो आपको देवता का शरीर प्राप्त होगा,यदि आप कुत्ते की तरह कर्म करेंगे तो आपको कुत्ते  का शरीर मिलेगा |मृत्यु के समय आपका भाग्य आपके हाथ में नही होता-यह प्रकृति के हाथ मैं होता है |यह हमारा कार्य नहीं कि  हम यह मनोकल्पना करें कि हमें अगला कौन स भौतिक शरीर मिलेगा|इस समय तो हम इतना ही समझ लें कि यह मनुष्य शरीर हमारी आध्यात्मिक चेतना अर्थात् हमारे कृष्णभावनामृत को विकसित करने का सुअवसर है|इसलिए हमे तुरंत कृष्ण की सेवा मे संलग्न हो जाना चाहिए |तभी हम प्रगति कर सकेंगे|
परंतु हम कब तक ऐसा करें?  जब तक यह शरीर कर्म कर सकता है तब तक|हम यह नही जानते कि यह कब काम करना बंद कर देगा|महान संत परीक्षित महाराज को तो सात दिन का समय मिला था ,"एक सप्ताह में तुम्हारा शरीर-पात हो जायेगा | किंतु हम नही जानते कि हमारा शरीर-पात कब हो जायेगा|हम जब भी सड़क पे होते है तो अकस्मात दुर्घटना हो सकती है |हमें सदैव तैयार रहना चाहिए|मृत्यु सदैव उपस्थित रहती है|हमें आशावादिता से यह नही सोचना चाहिए की हर कोई मर रहा है तो फिर आप क्यों जीवित रहेंगे? आपके पिता मारे हैं,प्रपितामह मरे हैं,अन्य सम्बन्धी भी मरे हैं तो फिर आप क्यों जीवित रहेंगे? आप भी मरेंगे|आपकी संताने भी मरेंगी|अतएव इसके पूर्व की मृत्यु आए,जब तक मानव बुद्धि है,हम कृष्णभावनामृत में जुट जाएँ|प्रह्लाद महाराज की यही संस्तुति है |
हम नही जानते कि यह शरीर कब काम करना बंद कर दे अतएव हमे तुरंत ही कृष्णभावनामृत में प्रवृत होकर उसी के अनुसार कर्म करना चाहिए|"किन्तु यदि मैं तुरंत कृष्णभावनामृत मे लग जाउ तो मेरी जीविका कैसे चलेगी ?" इसकी व्यवस्था है|मुझे आप लोगोँ से अपने एक शिष्य के विश्वास के विषय मे वर्णन करते हुए अत्यंत प्रसन्नता हो रही है|उससे असहमत एक अन्य शिष्य ने कहा, "तुम इसकी देखरेख नहीं करते कि प्रतिष्ठान को कैसे चलाया जाये|" इस पर उसने उत्तर दिया "अरे ! कृष्ण सब प्रदान करेंगे|" यह अति उत्तम विचार है|इसे सुनकर मैं हर्षित हुआ| यदि कुत्ते ,बिल्ली तथा सुअर भोजन पा सकते है,तो क्या हमारे कृष्ण हमारे भोजन का प्रबंध नही करेंगे? यदि हम पूरी तरह कृष्णभावनाभवित हों और उनकी सेवा करते हों |क्या कृष्ण कृतघ्न है? नहीं|
भगवतगीता में भगवान् कहते है,"है अर्जुन!मैं सभी पर समभाव रखता हूँ|मैं किसी से ईर्ष्या नहीं करता और न ही कोई मेरा विशेष मित्र है,परंतु जो कृष्णभावनामृत में संलग्न रहता है उसका मैं विशेष ध्यान रखता हूँ|" चूँकि एक छोटा बालक अपने माता-पिता की कृपा पे पूरी तरह आश्रित रहता है,अतएव वे बालक पे विशेष ध्यान रखते हैं|यद्यपि माता-पिता सारे बालकों पे समान रूप से दयालु होते हैं|किन्तु वे छोटे बालक,जो सदैव "माँ,माँ" चिल्लाते है उन पर विशेष ध्यान दिया जाता है|"क्या है मेरे लाल? बोलो?" यह स्वाभिक है|
जारी...
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Posted by prakash chand thapliyal